आज विश्वकर्मा जयंती है और ज्योतिषशास्त्र में मान्यता है, कि कन्या संक्रांति पर विश्वकर्मा जयंती अर्थात इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी का प्राकट्य दिवस होता है। सीधे शब्दों में जाने तो जब सूर्य ग्रह सिंह राशि से गोचर करते हुए कन्या राशि में आते है, तो कन्या संक्रांति होती है और इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी का जन्म हुआ था । इस कारण से कन्या संक्रांति के प्रथम दिन को विश्वकर्मा जी के उपासना के लिए भी समर्पित है और वर्ष 2022 में कन्या संक्रांति 17 सितम्बर को हो रही है। इस कारण से विश्वकर्मा जयंती भी 17 सितम्बर के दिन शनिवार को मनाई जायेगी। इसी विश्वकर्मा जयंती के उपलक्ष्य में हम सब जानेंगे कि विश्वकर्मा की जी कठिन तपस्या के बारें में , कि कैसे उन्होंने अपनी तपस्या से एक विशाल दैत्य वृत्रासुर के पिता बनें।
स्कंदपुराण के महेश्वरखण्ड (केदारखण्ड) में विस्तार से उल्लेख है, कि कैसे विश्वकर्मा जी के तप से वृत्रासुर की उत्तपत्ति हुई। आइये जानते है, स्कंदपुराण की यह कथा —
विश्वकर्मा जी की तपस्या का वर्णन करते हुए लोमशजी कहते हैं — इन्द्र एक महान उत्सव का आयोजन कर रहा था और इसी दौरान विश्वकर्मा जी के पुत्र की मृत्यु हुई थी, ऐसे इन्द्र का महान उत्सव देखकर पुत्र-शोक से पीड़ित विश्वकर्मा के मनमें बड़ा क्रोध हुआ। वे बहुत खिन्न होकर अत्यन्त उग्र तपस्या करनेके लिये गये। उस तपस्या से सन्तुष्ट होकर लोकपितामह ब्रह्माजी ने प्रजापति त्वष्टा से कहा-' 'सुव्रत! तुम कोई वर माँगो ।' तब त्वष्टा ने अत्यन्त हर्ष में भरकर वर माँगा- 'भगवन् !
हमें ऐसा पुत्र दीजिये, जो देवताओं के लिये भयंकर हो तथा सम्पूर्ण देवताओं और इन्द्र को भी शीघ्र मार डालने की इच्छा रखता हो।' 'तथास्तु' कहकर परमेष्ठी ब्रह्माने वरदान दे दिया। उस वरदानसे तत्काल ही वहाँ एक बड़ा अद्भुत दैत्य प्रकट हुआ, जो वृत्र नाम से प्रसिद्ध था।
वह असुर प्रतिदिन सौ धनुष (चार सौ हाथ) बढ़ता था। पूर्वकालमें अमृत-मन्थ नके समय देवताओं ने जिन दैत्यों को मार डाला था और शुक्राचार्यने पुनः जिन्हें जीवित कर दिया था, उनमें से राजा बलि को छोड़कर शेष सभी दैत्य पाताल से निकलकर वृत्रासुरके पास चले आये।
पाताल से आये हुए असुरों के साथ वृत्रासुर ने अकेले ही अपने विशाल शरीर द्वारा सम्पूर्ण भूमण्डल को ढक लिया। उस समय उससे पीड़ित हुए तपस्वी ऋषि तुरंत ब्रह्माजी के पास गये और उन्होंने अपनी सारी कष्ट-कथा कह सुनायी। तब ब्रह्माजीने गन्धव, मरुद्गणों तथा इन्द्रादि देवताओं से, विश्वकर्मा क्या करना चाहते हैं, यह बताया और कहा- 'विश्वकर्मा ने बड़ी भारी तपस्या करके तुम सब लोगों का वध करने के लिये अत्यन्त तेजस्वी वृत्रासुर को उत्पन्न किया है। वह सब दैत्योंका महान् अधीश्वर बना हुआ है। अब तुम लोग ऐसा प्रयत्न करो, जिससे वह तुम्हारे द्वारा मारा जा सके।' ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर इन्द्र आदि देवताओंने कहा- 'भगवन् !
जब हमारे ये इन्द्र ब्रह्महत्या से मुक्त होकर स्वर्ग के सिंहासन पर बिठाये गये, उस समय हम लोगों के द्वारा एक न करने योग्य कार्य हो गया है। अब उस भूल के दुष्परिणाम से पार पाना हमारे लिये कठिन है। भूल यह हुई कि हम अज्ञानियों ने अपने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र महर्षि दधीचि के आश्रम में रख दिये थे। उन शस्त्रों के बिना इस समय हम क्या कर सकते हैं?'
तदनन्तर ब्रह्माजी की आज्ञा से सब देवता दधीचि के आश्रम पर गये और उनसे बोले- 'देव !
हमने पूर्वकालमें जो अस्त्र-शस्त्र यहाँ रख दिये थे, वे सब हमें दे दिये जायँ।' यह सुनकर दधीचिने हँसते हुए कहा- बड़भागी देवताओ !
आपके उन अस्त्रों को बहुत काल से यहाँ व्यर्थ रखा हुआ जानकर मैंने सबको पी लिया।' उनकी यह बात सुनकर देवता बहुत चिन्तित हुए और पुनः ब्रह्माजीके पास लौटकर मुनि की सब बातें कह सुनायीं। तब ब्रह्माजी ने सबके अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये देवताओंसे कहा 'तुम लोग दधीचि से उनकी हड्डियाँ ही माँगो । माँगने पर वे देंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है।'
ब्रह्माजी की बात सुनकर इन्द्र बोले- 'वृत्रासुर नामक जो दैत्यराज है, उसे विश्वकर्मा ने उत्पन्न किया है (अतः वह ब्राह्मण है); यद्यपि वह निरन्तर अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाला है, तथापि ब्राह्मण होनेके कारण मैं उसका वध कैसे कर सकता हूँ।'
इन्द्र की बात सुनकर ब्रह्मा जी ने अर्थशास्त्र को प्रधानता देने वाली युक्ति से उन्हें समझाया और इस प्रकार कहा- 'देवराज ! यदि कोई आततायी मारने की इच्छा से आ रहा हो तो वह तपस्वी ब्राह्मण ही क्यों न हो, उसे अवश्य मार डालने की इच्छा करे। ऐसा करने से वह ब्रह्महत्यारा नहीं हो सकता। ब्रह्मा जी का यह वचन सुनकर इन्द्र ने कहा- 'भगवन्! दधीचि के वध से निश्चय ही मेरा पतन हो जायगा। उस ब्राह्मण की हत्या से सभी तरह के महान पाप अपने को लगेंगे।
अतः हमें ब्राह्मणों का अनादर नहीं करना चाहिये। परम धर्म अदृष्टरूप है। विज्ञ पुरुष को उचित है कि वह श्रेष्ठ विधि के अनुसार मनोयोग पूर्वक उस धर्मका पालन करे।
'इन्द्रके नि:स्पृह वचन सुनकर ब्रह्मा जी बोले 'देवेन्द्र! तुम अपनी बुद्धि के अनुसार बर्ताव करो और शीघ्र ही दधीचि के पास जाओ। कार्य की गुरुता को दृष्टि में रखकर दधीचि की हड़ियाँ माँगो।' 'बहुत अच्छा' कहकर इन्द्र ने ब्रह्माजी की आज्ञा स्वीकार की और गुरु बृहस्पति तथा सम्पूर्ण देवताओंके साथ दधीचि के मंगलमय आश्रम पर गये।
वह आश्रम नाना प्रकारके जीव-जन्तुओं से संयुक्त होने पर भी पारस्परिक वैर-भाव से रहित था। वहाँ बिल्ली और चूहे एक-दूसरे को देखकर प्रसन्न होते थे। एक ही स्थानपर सिंह, हथिनियाँ, हाथीके बच्चे और हाथी परस्पर मिलकर नाना प्रकारकी क्रीडाएँ करते थे। नेवलोंके साथ मिले हुए सर्प एक-दूसरे से आनन्द का अनुभव करते थे। ऐसी-ऐसी अनेक आश्चर्य भरी बातें उस आश्रम पर दिखायी देती थीं।
दधीचि मुनि अपने उत्तम तेज से सूर्य अथवा दूसरे अग्निदेव की भाँति प्रकाशित हो रहे थे। उनके साथ उनकी धर्मपत्नी सुवर्चा भी थीं। जैसे सावित्री के साथ ब्रह्माजी शोभा पाते हैं, उसी प्रकार वे मुनिश्रेष्ठ दधीचि भी अपनी धर्मपत्नीके साथ सुशोभित थे। सम्पूर्ण देवताओं ने मुनि का दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया और इस प्रकार कहा— 'मुने!
हमें पहले से ही विदित है कि आप तीनों लोकों में सबसे बड़े दाता हैं।' देवताओं की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ दधीचि बोले- 'श्रेष्ठ देवगण!
आप लोग जिस काम के लिये आये हैं, उसे बतावें। आपकी माँगी हुई वस्तु मैं अवश्य दूँगा, इसमें सन्देह नहीं है। मेरी बात कभी मिथ्या नहीं होती। तब अपना स्वार्थ सिद्ध करने की इच्छा वाले सब देवता एक साथ बोले - ‘ब्रह्मन् ! हम लोग भयभीत होकर आपके दर्शन की अभिलाषा से यहाँआये हैं।'
उनकी ये बातें सुनकर दधीचि ने कहा 'बताइये, आप लोगों के लिये क्या देना है ?' यों कहकर महर्षि ने अपनी पत्नी को आश्रम के भीतर भेज दिया। आगे की कथा आप अगले भाग में जानेंगे…
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)