हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रंथ स्कंद पुराण में अगस्तजी ने बड़े ही विस्तार से भगवान शिव की आराधना से विश्वानर के पुत्र को अग्गिकोण कोण के अधिपति की नियुक्ति की कथा का वर्णन किया है।
अगस्त्यजी कहते हैं—तदनन्तर विश्वानर द्वारा विधिपूर्वक गर्भाधान-संस्कार सम्पन्न होने पर उनकी स्त्री शुचिष्मती गर्भवती हुई। तत्पश्चात् विद्वान् विश्वानर ने गृह्यसूत्रोक्त विधि से बालककी पुरुषोचित शक्ति बढ़ाने के उद्देश्य से गर्भिणी का पुंसवन संस्कार किया। यह संस्कार गर्भस्थ बालक पेट में चलने-फिरने से पहले ही सम्पन्न किया गया। तदनन्तर आठवें मासमें सीमन्तोन्नयन संस्कार किया, जो गर्भस्थ बालक के अवयवों को पुष्ट करनेवाला है। उसके बाद सुखपूर्वक पुत्र का जन्म हो जाए इसके लिये भी विद्वान् ब्राह्मण ने सोष्यन्ती नामक वैदिक कर्म सम्पन्न किया। यह सब होने के पश्चात् शुभ ग्रह एवं नक्षत्रों के योग में शुष्मिती के गर्भ से एक चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखवाला पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सब प्रकार के अरिष्टों का नाश करनेवाला था।
वह अपने अंगों की प्रभा से सूतिकागृह को प्रकाशित कर रहा था। स्वयं ब्रह्माजी ने आकर उस बालक का जातकर्म संस्कार किया और यह बताया कि इस बालक का नाम गृहपति होगा। विष्णु और महादेवजी के साथ बालक के लिये उचित रक्षा विधान करके सबके प्रपितामह ब्रह्माजी हंसपर आरूढ़ हो चले गये।
चौथे महीने में बालक का घर से बाहर निष्क्रमण हुआ। छठे महीने में उसका अन्नप्राशन संस्कार किया गया और वर्ष पूरा होनेपर चूड़ाकरण संस्कार । तदनन्तर श्रवण नक्षत्र में कर्णवेध संस्कार करके ब्रह्मतेज वृद्धि के लिये वर्ष में उपनयन संस्कार पूर्वक उसे यज्ञोपवीत दे दिया गया।
उसके बाद श्रावणी में उपाकर्म करके विद्वान् विश्वानर ने उसे वेद पढ़ाना प्रारम्भ किया। तीन ही वर्ष में उस बालक ने अंग, पद और क्रम के साथ विधिपूर्वक सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन कर लिया। विनय आदि सद्गुणों को प्रकट करनेवाले उस शक्तिमान् विप्रकुमार ने गुरुमुखको साक्षीमात्र बनाकर समस्त विद्याएँ ग्रहण कर लो। तदनन्तर नवें वर्ष में विश्वानर कुमार गृहपति जब माता-पिता की सेवामें संलग्न था, उस समय इच्छानुसार विचरने वाले देवर्षि नारदजी विश्वानर को शा में आये और उस बालक को देखकर अर्ध्य और आसन ग्रहण करनेके पश्चात् उन्होंने कुशल- समाचार पूछा- महाभाग विश्वानर (पिताश्री) आपकी और उत्तम पालन करने वाली देवी (माँ) की यह बालक गृहपति सेवा तो करता है?
क्योंकि पुत्र के लिये पिता-माता के आज्ञापालन को छोड़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। दूसरा कोई तीर्थ नहीं है तथा दूसरा कोई देवता, गुरु और सत्कर्म नहीं है। त्रिलोकी में पुत्रके लिये माता-पिता से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है।
गर्भधारण और बाल्यावस्था में पोषण करनेके कारण माता का गौरव पिता से भी बढ़कर है। समस्त कम का संन्यास (त्याग) करने वाले संन्यासी के द्वारा भी पिता वन्दनीय है। उस सर्ववन्ध संन्यासी को भी प्रयत्नपूर्वक अपनी माता के चरणों की वन्दना करनी चाहिये। यही अत्यन्त उग्र तपस्या है, यही सबसे श्रेष्ठ व्रत है और यही सर्वोत्तम धर्म है कि पिता-माता को सन्तुष्ट किया जाय ।
विश्वानरकुमार! मेरे पास आओ मेरी गोद में बैठो और अपना दाहिना हाथ दिखाओ। तुम्हारे लक्षण कैसे हैं, यह मैं देखूंगा।' देवर्षि नारद के ऐसा कहने पर बालक गृहपति पिता-माता की आज्ञा ले नारदजी को प्रणाम करके भक्ति से विनीत हो उनके समीप आ बैठा। उसे अच्छी तरह देखने के बाद नारदजी ने कहा 'विप्रवर! तुम्हारा यह पुत्र समूची पृथ्वी का पालन करने वाला होगा और दिक्पाल पदवी धारण करेगा। इसके पास महान् ऐश्वर्य होगा। इसमें राजा होने के लक्षण हैं। यह अत्यन्त सुलक्षण बालक है; किंतु सर्वगुणसम्पन्न, समस्त शुभ लक्षणों से लक्षित तथा सम्पूर्ण निर्मल कलाओं से युक्त होने पर भी इसे दुर्दैव चन्द्रमा की भाँति नीचे गिरा सकता है। अतः पूर्ण प्रयत्न करके तुम्हें अपने इस शिशु की रक्षा करनी चाहिये। बारहवें वर्ष की अवस्था में इसको बिजली की अग्निसे भय है।' ऐसा कहकर बुद्धिमान् नारदजी जी के चले जाने पर माता-पिता को शोक घिरा देख गृहपति ने मुस्कुराते हुए कहा-माता और पिताजी!
आपलोगों को इतना भय क्यों हो रहा है? आप दोनों के चरणों के धूलि से ही मेरे शरीर की रक्षा हो रही है। फिर मुझे काल अपना ग्रास नहीं बना सकता, फिर बेचारी बिजली तो बहुत छोटी वस्तु है।
आप दोनों मेरी प्रतिज्ञा सुनें। यदि मैं आप दोनों का पुत्र हूँ तो ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे बिजली स्वयं मुझसे भयभीत होगी। जो साधु-महात्माओं को सब कुछ देने वाले और सर्वज्ञ हैं, काल के भी काल, कालकूट विषका भक्षण करने वाले महाकाल है, उन भगवान् मृत्युंजय की आराधना करके मैं निर्भय हो जाऊँगा।' पुत्र की यह बात सुनकर बूढ़े ब्राह्मण-दम्पति इस प्रकार बोले— 'बेटा! तुम भगवान् शिव की शरण में जाओ। इससे बढ़कर हित की दूसरी कोई बात नहीं हो सकती। भगवान् शिव आशातीत फल को देनेवाले और काल का भी संहार करनेवाले हैं। जिसने तीनों लोकों की सम्पत्ति का अपहरण कर लिया था, उस महाभिमानी जालन्धर को जिन्होंने अपने चरणों के अंगुष्ठकी रेखा से प्रकट हुए चक्र के द्वारा मार डाला था, जो ब्रह्मा आदि देवताओं के एकमात्र उत्पादक हैं और अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते, उन सम्पूर्ण विश्वकी रक्षा के लिये चिन्तामणिस्वरूप भगवान् शिवकी शरणमें जाओ।'
माता-पिता की ऐसी आज्ञा पाकर बालक गृहपति उनके चरणों में प्रणाम करके काशी में गया। वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके उसने तीनों लोकों के प्राणियों की रक्षा करने वाले भगवान् विश्वनाथ का दर्शन एवं उन्हें प्रणाम किया। विश्वनाथजी का दर्शन करके गृहपति के ह्रदय में बड़ा सन्तोष हुआ। उसने मन ही मन कहा—'यह दिव्य शिवस्वरूप वास्तव में परमानन्दकन्द है। इस मोक्षदायक मूर्ति में सम्पूर्ण विश्व का और विश्व के बीजभूत कर्मों का लय होता है, इसलिये यह 'विश्वनाथ' है। मेरे भाग्य का उदय हुआ था, इसीलिये महर्षि नारद ने उस दिन आकर वैसी बात कही थी। इसीसे आज मैं विश्वनाथजीका दर्शन करके कृतकृत्य हो रहा हूँ।
इस प्रकार आनन्द-सुधारस से पारण-सा करके गृहपति ने अत्यन्त कठोर नियम ग्रहण किये। वह प्रतिदिन गंगा के अमृतमय जल से भरे हुए एक सौ आठ कलशों क वस्त्रद्वारा छाने हुए जल से भगवान् शिव को स्नान कराता और उन्हें नीलकमल की माला समर्पित करता था। वह माला एक हजार आठ पुष्पों की बनी हुई होती थी। गृहपति पंद्रह-पंद्रह दिन पर कन्द-मूल-फल भोजन करता था। इस तरह उसने छःमास व्यतीत किये। फिर छ: महीनों तक उसने एक-एक पक्ष पर सूखे पत्ते चबाये। छः महीनों तक उसने जल की एक एक बूँद का ही आहार किया और छः महीनों तक केवल वायु भक्षण किया। इस प्रकार तपस्या करते हुए उस बालक के दो वर्ष व्यतीत हो गये। जन्म से बारहवें वर्ष में वज्रधारी इन्द्र उसके समीप आये और बोले- 'तुम कोई मनोवांछित वर माँगो, मैं उसे दूँगा।
बालक बोला- इन्द्र ! मैं आपको जानता हूँ, किंतु आपसे वर नहीं माँगूँगा। मुझे वर देनेवाले तो भगवान् शंकर हैं।
इन्द्र ने कहा- बालक! मैं देवताओं का भी देवता हूँ। मुझ से भिन्न दूसरा कोई कल्याणकारी शंकर नहीं है। तुम मूर्खता छोड़कर मुझसे वर माँगो ।
ब्राह्मण बालकबोला - पाकशासन! मैं भगवान् शिव के अतिरिक्त दूसरे किसी देवता से याचना नहीं कर सकता।
उसकी यह बात सुनकर इन्द्र के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने भयानक वज्र उठाकर उस बालकको भयभीत किया। विद्युत्की सैकड़ों ज्वालाओं से व्याप्त वज्र को देखकर ब्राह्मणबालक को देवर्षि नारद के वचनका स्मरण हो आया और वह भय से व्याकुल होकर मूर्छित हो गया। इसी समय अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले गौरीपति भगवान् शंकर वहाँ प्रकट हो गये और अपने स्पर्श से उस बालक में नवजीवन का संचार-सा करते हुए बोले "वत्स! तुम्हारा कल्याण हो, उठो, उठो।' उसने रात में सोये हुए की भाँति बंद नेत्रकमलो को खोलकर और उठकर देखा, आगे भगवान् शिव विराजमान हैं। उनका तेज सैकड़ों सूर्यो से भी अधिक प्रकाशमान है, मस्तक पर जटाजूट उनकी शोभा बढ़ा रहा है, त्रिशूल और आजगव धनुष (पिनाक) ये दोनों आयुध उनके हाथों में सुशोभित हैं। कर्पूर के समान गौर अंग उद्भासित हो रहा है। गुरुजनों और शास्त्र के वचन से उक्त लक्षणों द्वारा महादेवजी को पहचानकर गृहपति के नेत्रों में आनन्द आँसू छलक आये। वह एक क्षणतक लगा हुआ सा खड़ा रहा। स्तुति, नमस्कार अथवा कुछ निवेदन करनेमें भी समर्थ न हुआ। तब भगवान शंकर मुसकराते हुए बोले- 'वत्स गृहपते! तुम भयभीत न होओ। इन्द्र वज्र अथवा काल भी मेर भक्त का अनिष्ट करनेमें समर्थ नहीं है।
मैंने तो इन्द्रका रूप धरकर तुम्हें डराया था। भद्र! मैं तुम्हें वर देता हूँ, तुम अग्निपदवी के भागी बनो। तुम सम्पूर्ण देवताओं के मुख होओगे।
अग्ने ! तुम समस्त प्राणियों के भीतर विचरण करो। इन्द्र (पूर्व) और धर्मराज (दक्षिण) के मध्य में तुम दिक्पाल बनकर रहो और अपना राज्य ग्रहण करो। तुमने जो यह शिवजी की मूर्ति स्थापित की है, तुम्हारे ही नामसे प्रसिद्ध होगी। अग्नीश्वर नाम से विख्यात यह सब तेजों को बढ़ाने वाली होगी। सब समृद्धियों को देने वाले अग्नीश्वर की पूजा करके दैववश काशी से अन्यत्र मरने वाला पुरुष भी अग्निलोक में प्रतिष्ठित होगा।' ऐसा कहकर गृहपति अग्नि को दिक्पाल पद पर अभिषिक्त करके भगवान् शंकर उसी शिवमूर्ति में समा गये।
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)