स्कंद पुराण में वास्तु की दक्षिण-पश्चिम दिशा के मध्य जो स्थान है, उसके देवता है, निर्ऋति तथा पश्चिम में जो स्थान है उसका उल्लेख भगवन के दूतों ने शिवशर्मा जी को विस्तार से बताया है।
शिवशर्मा बोले—नारायणस्वरूप भगवत्पार्षदो ! अब आप लोग नैर्ऋत्य आदि लोकों का क्रमशः वर्णन करें।
दोनों भगवत पार्षदों ने कहा - महाभाग ! संयमनीपुरी से आगे जो निर्ऋति नामक दिक्पाल की पुण्यमयी पुरी है, उसका वर्णन सुनो। उसमें पुण्यजन निवास करते हैं। यद्यपि इसमें राक्षसों का ही वास है, तथापि वे राक्षस कभी भी दूसरों से द्रोह नहीं रखते। वे जातिमात्र से राक्षस हैं, आचार व्यवहार से तो ये पुण्यजन हैं—पुण्यात्मा पुरुष हैं। ये सदा तीर्थ-स्नानपरायण हो प्रतिदिन देवपूजा में तत्पर रहते हैं। अपने नाम गोत्र का उच्चारण करके ब्राह्मणों को प्रणाम करते हैं। दम (मनोनिग्रह), दान, दया, क्षमा, शौच, इन्द्रियनिग्रह, अस्तेय (चोरी न करना), सत्य और अहिंसा- ये सभी प्राणियों के लिये धर्म में सहायक हैं। जो मनुष्य जहाँ कहीं भी जन्म लेकर सदा आवश्यक कार्योंके लिये उद्यमशील बने रहते हैं, वे सब प्रकार की भोग-सामग्रियों से सम्पन्न होकर इस नैर्ऋत्यलोक में निवास करते हैं। काशी छोड़कर अन्य उत्तम तीर्थों में मरे हुए म्लेच्छकोटि के लोग यदि आत्मघाती न हों तो वे इस लोकमें भोगसम्पन्न होकर निवास करते हैं। जो कोई अन्त्यज भी दयाधर्म का अनुसरण करने वाले और परोपकारपरायण होते हैं, इस लोकमें श्रेष्ठतम होकर निवास करते हैं।
पूर्वकालमें विन्ध्याचल के जंगलों में पिंगाक्ष नाम से प्रसिद्ध एक भील रहता था, जो भीलों का सरदार था। निर्विन्ध्या नदी के तटपर उसका घर था। वह शूरवीर होने के साथ ही क्रूरकमों से विमुख था। पथिकों पर डाका डालने वाले लुटेरों को वह दूर रहकर भी मरवा डालता था और व्याघ्र आदि दुष्ट एवं हिंसक जीवों को प्रयत्नपूर्वक मारता था। यद्यपि व्याधों के आचार-व्यवहार से ही उसकी जीविका चलती थी तथापि उस दशा में भी वह जीवों के प्रति बड़ा दयालु था। वह थके-माँदै बटोहियों को शरण देता, भूखों को भोजन देकर उनकी भूख मिटाता और नंगे पाँव वाले मनुष्योंको जूता देता था। जिनके पास वस्त्र नहीं होता, उन्हें कोमल मृगचर्म देता और दुर्गम मार्ग एवं निर्जन प्रान्तर में वह पथिकोंके पीछे-पीछे जाकर उन्हें अभीष्ट स्थान पर पहुँचा आता था। उनके देने पर भी उनसे कभी धन नहीं लेना चाहता और सबको अभयदान करता था। पिंगाक्ष के रहने से विन्ध्याचल का वह भयानक वन नगर-सा हो गया था। उसके डरसे कोई भी राह चलने वालों की रोक टोक नहीं करता था। पिंगाक्ष के घर के समीप ही एक-दूसरे गाँव में उसका चाचा निवास करता था। एक दिन उसने गेरुए वस्त्र धारण करने वाले तीर्थयात्रियों के समूह का बड़ा भारी कोलाहल सुना। उन यात्रियों के पास बहुत धन था। वह नीच व्याध उस धन के लोभ से उन्हें मार डालने को उद्यत हो गया और आगे जाकर बहुत छिपे हुए उसने उस मार्ग को घेर लिया। उस समय पिंगाक्ष भी शिकार खेलने के लिये उस जंगलमें गया था और रात में उसी मार्ग के समीप टिका हुआ था। यह सम्पूर्ण जगत् भगवान् विश्वनाथ से सुरक्षित होकर कुशलपूर्वक रहता है। अतः विद्वान् पुरुष कभी किसी भी जीव का अनिष्टचिन्तन न करे। होगा वहीं जो विधाता ने रच रखा है l बुरा चाहने वालों को केवल साथ ही हाथ लगेगा। इसलिये कोई किसी का बुरा न सोचे। यदि कुछ सोचना ही हो तो मोक्ष के उपाय का चिंतन करे और किसी बात का नहीं, तदनन्तर जब रात बीतने लगी और प्रात काल निकट आ गया, उस समय बड़ा भारी कोलाहल मचा। एक और से आवाज आयी 'योद्धाओ! सबको मार डालो, नीचे गिरा दो और नंगे करके तलाशी लो।' दूसरी ओर से करुणाभरी पुकार सुनायी पड़ी 'सिपाहियो , मत मारो, रक्षा करो, हम तीर्थयात्री हैं। हमारे पास जो कुछ है, उसे बिना परिश्रम के लूट लो और ले जाओ।
हम अनाथ बटोही हैं, भगवान् विश्वनाथ के उपासक हैं और उन्हीं से सनाथ हैं। पिंगाक्ष के विश्वास से हम सदा इस मार्ग पर निर्भय होकर आया-जाया करते हैं, किंतु आज वह भी यहाँ से बहुत दूर है।' तीर्थयात्रियों की यह बात सुनकर पिंगाक्ष दूर से ही 'मत डरो, मत डरो' की रट लगाता हुआ सहसा वहाँ आ पहुँचा और बोला-'यह कौन दुराचारी है, जो मुझ पिंगाक्ष के जीते-जी मेरे प्राणों के समान प्यारे पथिकों को लूटना चाहता है।' उसका यह वचन सुनकर उसके पापी पितृव्य ताराक्ष ने क्रोधपूर्वक अपने सेवकों को आज्ञा दी- 'पहले इसीको मार डालो, उसके बाद इन साधु यात्रियों को लूटना।' यह सुनकर वे सभी दुराचारी भील मिलकर अकेले पिंगाक्ष के साथ युद्ध करने लगे। किसी-किसी तरह उन सबका सामना करता हुआ पिंगाक्ष यात्रियों को अपने घर के समीप तक ले गया। इसी बीच में विरोधियों के बाणों से उसके धनुष-बाण और कवच सभी कट गये। वे यात्री भी निर्भय होकर उसकी बस्ती में पहुँच गये और उसने दूसरों की रक्षाके लिये लड़ते-लड़ते प्राण त्याग दिये। मरते समय उसके मन में यह अभिलाषा थी कि यदि मैं समर्थ होता तो इन सबको मार गिराता । अन्तकाल में जैसी मति होती है, उसके अनुरूप ही गति होती है। अतः वह नैर्ऋत्यलोक में राक्षसों का राजा एवं दिक्पाल हुआ। इस प्रकार हम दोनों ने तुम्हें निर्ऋति के स्वरूप का परिचय दिया है।
नैर्ऋत्यपुरी से उत्तर दिशा में वरुणदेव का अद्भुत लोक है। जो लोग न्यायोपार्जित धन से कुआँ-बावली और तालाब बनवाते हैं, वे वरुणलोक में वरुण के ही समान कान्तिमान् होकर सम्मानपूर्वक निवास करते हैं। जो निर्जल प्रदेश में जल देते, दूसरों के सन्ताप दूर करते और याचकों को विचित्र छाता एवं कमण्डलु देते हैं, जो नाना प्रकार की खान-पान की सामग्रियों से युक्त पौंसला बनवाते, सुगन्धित जल से भरे हुए धर्मघट दान करते, जो पीपल के वृक्षको सींचते और मार्ग में वृक्ष लगाते हैं, यात्रियों के ठहरनेके लिये धर्मशालाएँ बनवाते, थके-माँदै पथिकों का कष्ट दूर करते, गरमी मोरपंख आदि के बने हुए पंखे बाँटते और यात्रियों का पसीना दूर करते हैं तथा जो पुण्यात्मा मानव दुराचारी मनुष्यों द्वारा गले में फाँसी लगाये हुए जीवों को बन्धन से मुक्त करते हैं, वे निर्भय होकर वरुण देवता के इस लोक (पश्चिम) में निवास करते हैं। ये वरुणदेव ही सम्पूर्ण जलाशयों तथा जलजन्तुओं के एकमात्र स्वामी और सब कर्मों के साक्षी हैं। इस प्रकार यह वरुणलोक का स्वरूप बताया गया है। इस प्रसंगको सुनकर मनुष्य कहीं भी दुर्मृत्यु के कष्ट से पीड़ित नहीं होता है।
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)