स्कंद पुराण में वास्तु के इन देवताओं का वर्णन भगवान के दो पार्षदों ने शिवशर्मा जी को विस्तार पूर्वक सुनाया है…जिसका श्रवण शिवशर्मा जी के साथ-साथ अगस्त जी भी कर रहें थे..
भगवान के दोनों पार्षद कहते हैं— हे ब्रह्मन् ! वरुण की पुरी से उत्तर भाग में इस पुण्यमयी पुरी को देखो। यह वायुदेव की गन्धवती नाम वाली नगरी है। इसमें सम्पूर्ण जगत्के प्राणस्वरूप प्रभंजन (वायु) नामक दिक्पाल निवास करते हैं। इन्होंने महादेवजी की आराधना करके दिक्पाल का पद प्राप्त किया है। पूर्व काल की बात है। कश्यपजी के पुत्र पूतात्मा ने महादेवजी की राजधानी काशीपुरी में दस लाख वर्षों तक बड़ी भारी तपस्या की। उन्होंने वहाँ पवनेश्वर नामक परम पवित्र महान् शिवजी के स्वरूप की स्थापना की, जिसके दर्शनमात्र से मनुष्य का अन्तःकरण परम पवित्र हो जाता है और वह पापकी केंचुल त्याग कर वायुदेव के पवित्र नगर में निवास करता है । तदनन्तर पूतात्मा की घोर तपस्या से प्रसन्न हो तप का फल देने वाले ज्योतिस्वरूप भगवान् महेश्वर उस मूर्ति से प्रकट हुए और बोले— 'सुव्रत ! उठो, उठो । मनोवांछित वर माँगो ।'
पूतात्मा बोला- देवाधिदेव महादेव! आप देवताओं को अभयदान देनेवाले हैं। प्रभो! वेद भी नेति नेति कहते हुए आप के सम्बन्ध में यह नहीं जानते कि आपका स्वरूप कैसा है? फिर मेरे जैसा मनुष्य आपकी स्तुति करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है? योगी भी आपके तत्त्वको वास्तव में नहीं उपलब्ध कर पाते। आप एक होकर भी शिव और शक्ति के भेद से दो स्वरूपों में अभिव्यक्त हुए हैं। आप ज्ञानस्वरूप भगवान् हैं और आपकी इच्छा ही शक्तिस्वरूपा है। शिव और शक्तिरूप आप दोनों के द्वारा लीलापूर्वक क्रियाशक्ति उत्पन्न की गयी है, जिसके द्वारा इस सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि की गयी है। आप ज्ञानशक्ति महेश्वर हैं और उमादेवी इच्छाशक्ति मानी गयी हैं। यह सम्पूर्ण जगत् क्रियाशक्तिमय है और आप इसके कारण हैं। नाथ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है।
पूतात्मा के ऐसा कहने पर सर्वशक्तिमान् देवेश्वर शिव ने उन्हें अपना स्वरूप प्रदान किया और दिक्पाल के पद पर प्रतिष्ठित किया।
तत्पश्चात् इस प्रकार कहा- 'तुम सब तत्त्वों के ज्ञाता और सबकी आयुरूप होओगे। जो मनुष्य तुम्हारे द्वारा स्थापित की हुई मेरी इस दिव्य मूर्ति का यहाँ दर्शन करेंगे, वे तुम्हारे लोक में सब भोगों से सम्पन्न हो सुख के भागी होंगे।' इस प्रकार वरदान देकर महादेवजी उस मूर्ति में विलीन हो गये।
ब्रह्मन्। गन्धवतीपुरी के स्वरूप का निरूपण किया गया। उसके पूर्वभाग में शोभामयी कुबेर की अलकापुरी है। इसके स्वामी कुबेर अपने भक्तिभाव के प्रभाव से भगवान् शिव के सखा हो गये हैं। शिव की पूजा के बल से वे पद्म आदि नवनिधियों के दाता और भोक्ता हैं।।
अलकापुरी के पूर्वभाग में भगवान् शंकर की ईशानपुरी है, जो महान् अभ्युदय से सदा सुशोभित है। उसके भीतर भगवान् शंकर के तपस्वी भक्त निवास करते हैं। जो भगवान् शिव के चिन्तन में संलग्न रहते, शिवसम्बन्धी व्रतों का पालन करते, अपने समस्त कर्म भगवान् शिव को अर्पित कर देते और सदा शिव की पूजा में तत्पर रहते तथा जो स्वर्गभोग की अभिलाषा लेकर भगवान् शिव की प्रसन्नता के लिये तप करते हैं, वे सब मानव रुद्ररूप धारण करके इस परम रमणीय रुद्रपुरी में निवास करते हैं। इस पुरी में अजैकपात् और अहिर्बुध्न्य आदि ग्यारह रुद्र अधिपतिरूप से हाथ में त्रिशूल लिये विराजमान रहते हैं। ये देवद्रोहियों से आठ पुरियों की रक्षा करते और शिवभक्तों को सदैव वर देते हैं। इन्होंने भी काशीपुरी में जाकर शुभदायक ईशानेश्वर की स्थापना करके बड़ी भारी तपस्या की है और भगवान् ईशानेश्वर के प्रसाद से ईशानकोण में ये दिक्पाल हुए हैं। ये ग्यारहों रुद्र जटा के मुकुट से मण्डित हो एक साथ चलते हैं।
इस प्रकार स्वर्गमार्ग में विष्णुपार्षदों की कही हुई कथा सुनते हुए शिवशर्मा जी ने आगे जाकर दिन में भी चन्द्रमा की चटकीली चाँदनी देखी, जो सब इन्द्रियों के साथ-साथ मन को परम आह्लाद प्रदान करती थी। उसे देखकर शिवशर्मा जी ने पूछा 'भगवत्पार्षदो ! वह कौन-सा लोक है ?'
दोनों पार्षदोंने कहा- महाभाग ! यह चन्द्रमाका लोक है, जिसकी अमृत की वर्षा करने वाली किरणों से यह सम्पूर्ण जगत् परिपुष्ट होता है। चन्द्रमा के पिता महर्षि अत्रि हैं, जो पूर्वकाल में प्रजासर्ग की इच्छा रखनेवाले ब्रह्माजी के मन से प्रकट हुए थे।
हमने सुना है, कि प्राचीन काल में तीन हजार दिव्य तपस्या की है। जिससे उनके चन्द्रमा जैसा पुत्र है। स्वयं ब्रह्माजी ने उनका पालन-पोषण किया है। तेज प्राप्त करके भगवान् चन्द्रमा ने बहुत वर्षों तक बढ़ी भारी तपस्या की परम पावन अविमुक्त क्षेत्र (काशीधाम) में जाकर अपने नाम से उन्होंने चन्द्रेश्वर नामक मूर्ति की स्थापना की। इससे वे पिनाकधारी देवाधिदेव श्रीविश्वनाथजी को कृपा से बीज, ओषधि, जल और ब्राह्मणों के राजा हुए। यहाँ उन्होंने अमृतोद नाम से प्रसिद्ध कृप का निर्माण कराया, जिसके जल को पीने और जिसमें स्नान करने से मनुष्य अज्ञान से मुक्त हो जाता है। देवों के देव महादेव ने प्रसन्न होकर जगत् को जीवन प्रदान करने वाली चन्द्रमा की एक उत्तम कला को लेकर अपने मस्तक पर धारण किया। तत्पश्चात् दक्ष के शाप से मास की समाप्ति पर अमावास्या तिथि को क्षीण होने पर भी केवल उसी कला के द्वारा पुनः वे वृद्धि एवं पुष्टि को प्राप्त होते हैं।
जब सोमवार को अमावास्या तिथि हो, तब सज्जन पुरुषों को आदरपूर्वक चतुर्दशी तिथिमें उपवास करना चाहिये। नित्यकर्म करके त्रयोदशी तिथि में शनिप्रदोषयोग में चन्द्रेश्वरलिंग का पूजन करके त्रयोदशी में व्रत करे और उसी में नियम ग्रहण करके चतुर्दशी को उपवास एवं रात्रि जागरण करे।
प्रातः काल सोमवती अमावास्या के योग में चन्द्रोदतीर्थ के जल से स्नान करे। तत्पश्चात् विधिपूर्वक सन्ध्योपासना करके तर्पण आदि कर्म करे। फिर चन्द्रोदतीर्थ के समीप ही शास्त्रोक्त विधिके अनुसार श्राद्ध करे। आवाहन और अदान कर्म के बिना ही यत्नपूर्वक पिण्डदान दे। वसु रुद्र और आदित्यस्वरूप पिता, पितामह और प्रपितामह को क्रमशः पिण्ड देकर मातामह, प्रमातामह तथा वृद्धप्रमातामह के उद्देश्यसे पिण्ड दे।
तदनन्तर अपने गोत्र में उत्पन्न हुए अन्य लोगों को एवं गुरु, श्वशुर और बन्धुजनोंको भी उनके नाम लेकर पिण्ड देवे जो श्रद्धापूर्वक चन्द्रोदतीर्थ में पिण्डदान करता है, वह अपने सम्पूर्ण पितरोंका उद्धार कर देता है।
जैसे गया में पिण्ड देने से पितर तृप्त होते हैं, उसी प्रकार इस चन्द्रोदकुण्ड के समीप श्राद्ध करनेसे भी उनकी तृप्ति होती है। काशीक्षेत्रमें निवास करने वाले लोगों को तारक मन्त्र के ज्ञान की प्राप्ति के लिये चैत्र की महापूर्णिमा को यहाँ यात्रा करनी चाहिये। यह यात्रा इस क्षेत्र के निवास में आने वाले विघ्न का निवारण करनेवाली है। काशी से अन्यत्र निवास करने वाला पुरुष भी यदि यहाँ आकर चन्द्रेश्वर की भलीभाँति पूजा कर ले तो वह पापराशि का भेदन करके चन्द्रलोक को प्राप्त होगा। सोमवारका व्रत करने वाले और सोमयाग में सोमरस पीने वाले मनुष्य चन्द्रमा के समान प्रकाशमान विमान द्वारा जाकर सोमलोक में ही निवास करते हैं।
अगस्त्यजी कहते हैं—प्रिये! भगवान् के दोनों दिव्य पार्षद उस दिव्य मार्ग में शिवशर्मा को यह कल्याणकारिणी कथा सुनाते हुए परम उज्ज्वल| नक्षत्रलोकमें जा पहुँचे।
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)