भारत के बिहार प्रान्त का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व है-सूर्यषष्ठी । 'सूर्यषष्ठी' प्रमुखरूप से भगवान् सूर्यका व्रत है। इस व्रत में सर्वतोभावेन भगवान् सूर्य की पूजा की जाती है। पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में विभिन्न रूपों में ईश्वर की उपासनाके लिये प्रायः पृथक् पृथक् दिन एवं तिथियों का निर्धारण किया गया है। जैसे गणेश जी की पूजा के लिये चतुर्थी तिथि की प्रसिद्धि है। श्रीविष्णु जी के लिये एकादशी तिथि प्रशस्त मानी गयी है। इसी प्रकार सूर्य के साथ सप्तमी तिथि की संगति है। यथा-सूर्यसप्तमी, रथसप्तमी, अचलासप्तमी इत्यादि । किंतु बिहार के इस व्रतमें सूर्य के साथ षष्ठी तिथि का समन्वय का विशेष महत्त्व है।
हमारी परम्पराओं की जड़ें बहुत गहरी हैं। अतः जितनी भी भारतीय परम्पराएँ प्रचलित हैं, प्रायः उन सभी का मूल स्रोत कहीं-न-कहीं पौराणिक कथाओं में अवश्य उपलब्ध होता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में परमात्मा की माया को 'प्रकृति' और माया के स्वामी को 'मायी' कहा गया है। यह प्रकृति ब्रह्मस्वरूपा, मायामयी और सनातनी है। ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखण्ड के अनुसार परमात्मा ने सृष्टिके लिये योग का अवलम्बन लेकर अप नेको दो भागों में विभक्त किया। दक्षिण भाग से पुरुष और वामभाग से प्रकृति का आविर्भाव हुआ। यहाँ 'प्रकृति' शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गयी है। प्रकृतिके 'प्र' का अर्थ है प्रकृष्ट और 'कृति' का अर्थ है सृष्टि अर्थात् प्रकृष्ट सृष्टि। दूसरी व्याख्याके अनुसार 'प्र' का सत्त्वगुण, 'कृ' का रजोगुण और 'ति' का तमोगुण अर्थ किया गया है।
इन्हीं तीनों गुणोंकी साम्यावस्था ही प्रकृति है।
त्रिगुणात्मस्वरूपा या सर्वशक्तिसमन्विता।
या सर्वशक्तिसमन्विता । प्रकृतिस्तेन कथ्यते ॥
उपर्युक्त श्लोक अनुसार सृष्टि की अधिष्ठात्री ये ही - प्रकृति देवी स्वयंको पाँच भागों में विभक्त करती हैं-दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री। ये पाँच देवियाँ पूर्णतम प्रकृति कहलाती हैं। इन्हीं प्रकृतिदेवीके अंश, कला, कलांश और कलांशांश भेदसे अनेक रूप हैं, जो विश्व की समस्त स्त्रियों में दिखायी देते हैं। मार्कण्डेयपुराणका भी यही उद्घोष है— 'स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।' प्रकृतिदेवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं, जो सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी जाती हैं। ये समस्त लोकों के बालकों की रक्षिका देवी हैं। प्रकृति का छठा अंश होनेके कारण इन देवीका एक नाम 'षष्ठी' (छटदेवी) भी है।
षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्ठी प्रकीर्तिता । बालकाधिष्ठातृदेवी विष्णुमाया च बालदा ॥
आयुः प्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी । सततं शिशुपार्श्वस्था योगेन सिद्धियोगिनी ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड ४३ ४, ६) ब्रह्मवैवर्तपुराणके इन श्लोकोंसे ज्ञात होता है कि विष्णु माया षष्ठी देवी बालकोंकी रक्षिका एवं आयुप्रदा हैं। षष्ठी देवी के पूजन का प्रचार पृथ्वी पर कब से हुआ, इस संदर्भ में एक कथा इस पुराणमें आयी है- 'प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र प्रियव्रत को कोई संतान न थी।
एक बार महाराज ने महर्षि कश्यप से अपना दुःख व्यक्त किया और पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा। महर्षि ने महाराज को पुत्रेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया। यज्ञ के फलस्वरूप महाराज की मालिनी नामक महारानी ने यथावसर एक पुत्रको जन्म दिया, किंतु वह शिशु मृत था। महारानी को मृत-प्रसव हुआ है, इस समाचार से हर्ष का स्थान अवसाद ने ले लिया।
पूरे नगरमें शोक व्याप्त हो गया। महाराज प्रियव्रत के ऊपर तो मानो वज्रपात ही हुआ हो। वे शिशुके मृत शरी रको अपने वक्ष से लगाये उन्मत्तों की भाँति प्रलाप कर रहे थे। परिजन किंकर्तव्यविमूढ खड़े थे। किसी में इतना भी साहस नहीं था कि वह और्ध्वदैहिक क्रिया के लिये बालक के शवको राजा से अलग कर सके। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सभीने देखा कि आकाश से एक ज्योतिर्मय विमान पृथ्वी की ओर आ रहा है। विमान के समीप आने पर स्थिति और स्पष्ट हुई, उस विमान में एक दिव्याकृति नारी बैठी हुई थी। राजाके द्वारा यथोचित स्तुति करने पर देवीने कहा- मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठीदेवी हूँ। मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूँ एवं अपुत्रों को पुत्र प्रदान करती हूँ- 'पुत्रदाऽहम् अपुत्राय ।' इतना कहकर देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया, जिससे वह बालक जीवित हो उठा। महाराज के प्रसन्नता की सीमा न रही। वे अनेक प्रकार से षष्ठीदेवी की स्तुति करने लगे। देवीने भी प्रसन्न होकर राजा से कहा- तुम ऐसी व्यवस्था करो, जिससे पृथ्वीपर सभी हमारी पूजा करें। इतना कहकर देवी अन्तर्धान हो गयीं।
तदनन्तर राजा ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक देवी की इस आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने राज्य में 'प्रतिमासके शुक्लपक्ष की 'षष्ठी' तिथिको षष्ठी महोत्सव के रूपमें मनाया जाय'- ऐसी राजाज्ञा प्रसारित करायी। तभी से लोक में बालकोंके जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन आदि सभी शुभ अवसरोंपर षष्ठी-पूजन प्रचलित हुआ। इनके नैवेद्य में मीठे चावल का होना अनिवार्य है। आज भी शिशुके जन्म से छठे दिन षष्ठी-पूजन (छठ्ठी) बड़े धूमधामसे लोक गीत (सोहर), वाद्य तथा पक्वानों के साथ मनानेका प्रचलन है। प्रसूता को प्रथम स्नान भी इसी दिन करानेकी परम्परा है।
इस पौराणिक प्रसंग से यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि पाही शिशुओं के संरक्षण एवं संवर्धन से सम्बन्धित देवी हैं तथा इनकी विशेष पूजा पट्टी तिथिको होती है, वह चाहे बच्चों के जन्मोपरान्त छठा दिन हो या प्रत्येक चान्द्रमास के शुक्लपक्ष को ही पुरानो इन्हीं देवी का एक नाम 'कात्यायनी भी मिलता है, जिनकी पूजा नवरात्र पष्ठी तिथिको होती है' षष्ठं कात्यायनीति च।'
ब्रह्मवैवर्तपुराण में वर्णित इस आख्यान से षष्टी देवी का माहात्म्य, पूजन विधि एवं पृथ्वी पर इनकी पूजा का प्रसार आदि विषयों का सम्यक ज्ञान होता है,
किंतु सूर्य के साथ षष्ठी देवी के पूजनका विधान तथा 'सूर्यषष्ठी' नाम से पर्वके रूपमें इसकी ख्याति कबसे हुई? यह विचारणीय विषय है।
भविष्यपुराण प्रतिमास के तिथि व्रतों के साथ षष्टी व्रत का भी उल्लेख मिलता है। यहाँ कार्तिकमास के शुक्लपक्ष की षष्ठी का उल्लेख स्कन्द षष्ठी के नामसे किया गया है, किंतु इस व्रत के विधान में और लोक में प्रचलित सूर्यष्ठी व्रतके विधान में पर्याप्त अन्तर है।
मैथिल 'वर्षकृत्यविधि' में 'प्रतिहार षष्ठी' के नाम से बिहार में प्रसिद्ध सूर्यष्ठीव्रत' की चर्चा की गयी है। इस ग्रन्थमें व्रत, पूजा की पूरी विधि, कथा तथा फलश्रुति के साथ ही तिथियों के क्षय एवं वृद्धि की दशा में कौन-सी षष्ठी तिथि ग्राह्य है, इस विषयपर भी धर्मशास्त्रीय दृष्टि से साङ्गोपाङ्ग चर्चा की गयी है और अनेक प्रामाणिक स्मृतिग्रन्थों से पुष्कल प्रमाण भी दिये गये हैं।
सम्प्रति इस व्रत के अवसर पर लोक में जिन परम्परागत नियमों का अनुपालन किया जाता है, उनमें इसी ग्रन्थका सर्वथा अनुसरण दृष्टिगत होता है। कथा के अन्तमें 'इति श्रीस्कन्दपुराणोक्तप्रतिहारषष्ठीव्रतकथा समाप्ता' लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि 'स्कन्दपुराण' के किसी संस्करण में इस व्रत का उल्लेख अवश्य हुआ होगा। अतः इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता भी परिलक्षित होती है। प्रतिहार का अर्थ होता है-जादू या चमत्कार अर्थात् चमत्कारिक रूप से अभीष्टों को प्रदान करनेवाला व्रत ।
इस ग्रन्थ में षष्ठीव्रत की कथा अन्य पौराणिक कथाओं की तरह हो वर्णित है। यहाँ भी नैमिषारण्यमें शौनकादि मुनियोंके पूछने पर श्रीसूतजी लोककल्याणार्थ सूर्यषष्टी -व्रत का माहात्म्य, विधि तथा कथा का उपदेश करते हैं। यहाँ उस कथा के अनुसार -
एक राजा है, जो कुष्ठरोगग्रस्त एवं राज्यविहीन है, ये किसी विद्वान् ब्राह्मणके आदेशानुसार इस व्रत को करते हैं, जिसके फलस्वरूप वे रोगमुक्त होकर पुनः राज्यारूढ एवं समृद्ध हो जाते हैं। पञ्चमीयुक्त षष्टी का यहाँ सर्वथा निषेध किया गया है।
यथा स्कन्दपुराण में 'नागविद्धा न कर्तव्या षष्ठी चैव कदाचन' इसके प्रमाणस्वरूप राजा सगर की कथा का भी उल्लेख किया गया है। सगर ने एक बार पञ्चमीयुक्त सूर्यषष्ठी व्रत को किया था, जिसके फलस्वरूप कपिलमुनि के शापसे उनके सभी पुत्रोंका विनाश हो गया। उक्त दृष्टान्त से इस व्रतको प्राचीनता भी द्योतित होती है। व्रत की विधिमें बताया गया है कि कार्तिकमास के शुक्लपक्ष में सात्त्विक रूप से रहना चाहिये। पञ्चमी को एक बार भोजन करे। वाक्संयम रखे, षष्ठी को निराहार रहे तथा फल-पुष्प, घृतपक्व नैवेद्य, धूप, दीप आदि सामग्रीको लेकर नदीतटपर जाय और गीत वाद्य आदिसे हर्षोल्लासपूर्वक महोत्सव मनाये। भगवान् सूर्य का पूजन कर भक्तिपूर्वक उन्हें रक्तचन्दन तथा रक्तपुष्प अक्षतयुक्त अर्ध्या निवेदित करे
कार्तिके शुक्लपक्षे तु निरामिषपरो भवेत् ।
पञ्चम्यामेकभोजी स्याद् वाक्यं दुष्टं परित्यजेत् ॥
षष्ठयां चैव निराहार: फलपुष्पसमन्वितः ।
सरित्तर्ट गन्धदीपैर्मनोहरैः।।
धूपैर्नानाविधैर्दिव्यैनैवेद्यैर्धृतपाचितैः ।
गीतवाद्यादिभिश्चैव महोत्सवसमन्वितैः ॥
समभ्यर्च्य रविं भक्त्या दद्यादयं विवस्वते ।
रक्तचन्दनसम्मिश्रं रक्तपुष्पाक्षतान्वितम् ॥
इसी ग्रन्थ में आगे अर्घ्य, प्रदक्षिणा एवं नमस्कार के मन्त्र भी उल्लिखित हैं।
सम्प्रति इस व्रतका सर्वाधिक प्रचार बिहार राज्यमें दिखायी पड़ता है। सम्भव है, इसका आरम्भ भी यहीं से हुआ हो और अब तो बिहार के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी इसका व्यापक प्रसार हो गया है। इस व्रतको सभी लोग अत्यन्त भक्ति-भाव, श्रद्धा एवं उल्लाससे मनाते हैं। सूर्याघ्रय के बाद व्रतियों के पैर छूने और उनके गीले वस्त्र धोने वालों में प्रतिस्पर्धाको भावना देखते ही बनती है।
इस व्रत का प्रसाद माँगकर खानेका विधान है। सूर्यषष्टी व्रत के प्रसाद में ऋतुफल के अतिरिक्त आटे और गुड़से शुद्ध घी में बने 'ठेकुआ' का होना अनिवार्य है; ठेकुआ पर लकड़ी के साँचे से सूर्यभगवान के रथ का चक्र भी अङ्कित करना आवश्यक माना जाता है।
षष्ठी के दिन समीपस्थ किसी पवित्र नदी या जलाशय के तटपर मध्याह्न से ही भीड़ एकत्र होने लगती है। सभी व्रती महिलाएँ नवीन वस्त्र एवं आभूषणादिकों से सुसज्जित होकर फल, मिष्टान और पक्वानों से भरे हुए नये बाँस से निर्मित सूप और दौरी (डलिया) लेकर षष्टीमाता और भगवान् सूर्य के लोकगीत गाती हुई अपने-अपने घरों से निकलती हैं। भगवान के अर्घ्य का सूप और डलिया ढोने का भी महत्त्व है।
यह कार्य पति, पुत्र या घर का कोई पुरुष सदस्य ही करता है। घर से घाट तक लोकगीतों का क्रम चलता ही रहता है और यह क्रम तब तक चलता है जबतक भगवान् भास्कर सायंकालीन अर्घ्य स्वीकार कर अस्ताचल को न चले जायें। सूपों और डलियों पर जगमगाते हुए घी के दीपक गंगाा के तटपर बहुत ही आकर्षक लगते हैं। पुनः ब्राह्ममुहूर्त में ही नूतन अर्घ्य सामग्री के साथ सभी व्रती जल में खड़े होकर हाथ जोड़े हुए भगवान् भास्करके उदयाचलारूढ होने की प्रतीक्षा करते हैं। जैसे ही क्षितिजपर अरुणिमा दिखायी देती है वैसे ही मन्त्रों के साथ भगवान् सविता को अर्घ्य समर्पित किये जाते हैं। यह व्रत विसर्जन, ब्राह्मण-दक्षिणा एवं पारणाके पश्चात् पूर्ण होता है।
सूर्यषष्ठी व्रतके अवसर पर सायंकालीन प्रथम अर्घ्य से पूर्व मिट्टी की प्रतिमा बनाकर षष्ठी देवी का आवाहन एवं पूजन करते हैं। पुनः प्रातः अर्घ्य के पूर्व षष्ठी देवी का पूजन कर विसर्जन कर देते हैं। मान्यता है कि पञ्चमी के सायंकालसे ही घर में भगवती षष्ठी का आगमन हो जाता है। इस प्रकार भगवान् सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति और ब्रह्म दोनों की उपासनाका फल एक साथ प्राप्त होता है इसीलिये लोक में यह पर्व 'सूर्यषष्ठी' के नामसे विख्यात है।
सांसारिक जनों की तीन एषणाएँ प्रसिद्ध हैं- पुत्रैषणा,वित्तैषणा तथा लोकैषणा। भगवान् सविता प्रत्यक्ष देवता हैं, वे समस्त अभीष्टों को प्रदान करनेमें समर्थ है-' कि 'किं न सविता सूते ।' समस्त कामनाओं की पूर्ति तो भगवान् सविता से हो जाती है, किंतु वात्सल्य का महत्त्व माता से अधिक और कौन जान सकता है ? परब्रह्मकी शक्तिस्वरूपा प्रकृति और उन्हीं के प्रमुख अंश से आविर्भूता देवी षष्टि संतति प्रदान करने के लिये ही मुख्यतया अधिकृत हैं। अतः पुत्र की कामना भगवती षष्ठी से करना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। इन्हीं पुराणोक्त कथाओं के भाव सूर्यषष्ठी-पर्व के अवसर पर बिहार में महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले लोकगीतों में भी देखनेको मिलते हैं -
काहे लागी पूजेलू तु देवलघरवा (सूर्यमन्दिर) है।
काहे लागी, कर ह छठी के बरतिया हे, काहे लागी
अन-धन सोनवा लागी पूजी देवलघरवा हे,
पुत्र लागी, करीं हम छठीके बरतिया हे, पुत्र लागी
इस गीतमें समस्त वैभवों की कामना तो भगवान् भास्कर से की गयी है, किंतु पुत्र की कामना भगवती षष्ठी से ही की जा रही है। इन पुराणसम्मत तथ्यों को हमारी ग्रामीण साधु महिलाओं ने गीतों में पिरोकर अक्षुण्ण रखा है। सविता और षष्ठी दोनों की एक साथ उपासना से अनेक वाञ्छित फलोंको प्रदान करनेवाला यह सूर्यषष्ठी व्रत वास्तवमें बहुत महत्त्वपूर्ण है।
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)