पितर पक्ष में अमावास्या तिथि का महत्व स्कंदपुराण के नागरखण्ड-उत्तरार्ध में विस्तार से मिलता है। श्राद्ध पक्ष में अमावास्या के महत्व का वर्णन पूछते हुए आनर्त नरेश कहते हैं, कि हे! भर्तृयज्ञ श्राद्ध के लिये और भी तो नाना प्रकार के पवित्रतम काल हैं; फिर अमावास्या को ही विशेषरूप से श्राद्ध करने की बात क्यों कही गयी है? तब
भर्तृयज्ञ ने कहा- महाराज! यह सत्य है कि श्राद्ध के योग्य और भी बहुत-से समय हैं। मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, संक्रान्तिकाल, व्यतीपात, गजच्छाया, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण- इन सभी समयों में पितरों की तृप्ति के लिये श्राद्ध करना चाहिये। पुण्यतीर्थ, पुण्यमन्दिर, श्राद्धयोग्य ब्राह्मण तथा श्राद्ध के योग्य उत्तम पदार्थ प्राप्त होने पर बुद्धिमान् पुरुषों को बिना पर्व के भी श्राद्ध करना चाहिये । अमावास्या को जो विशेष रूप से श्राद्ध करने का आदेश दिया गया है, इसका कारण बताता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो।
सूर्य की सहस्रों किरणोंमें जो सबसे प्रमुख है, उसी का नाम 'अमा' है; उस 'अमा' नामक प्रधान किरण के ही तेज से सूर्यदेव तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्रदेव निवास करते हैं, इसलिये उसका नाम 'अमावास्या' है। यही कारण है कि अमावास्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिये अक्षय फल देनेवाली बतायी गयी है। श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्त्व है ही। अग्निष्वात्त, बर्हिषद्, आज्यप, सोमप, रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक् तथा नान्दीमुख—ये नौ दिव्य पितर बताये गये हैं ।
आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नान्दीमुख पितरोंको छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। ये पितृगण ब्रह्माजीक समान बताये गये हैं अतः पद्मयोनि ब्रह्माजी उन्हें तृप्त करने के पश्चात् सृष्टि कार्य प्रारंभ करते है।
इनके सिवा, दूसरे भी ऐसे मर्त्य पितर होते हैं, जो स्वर्ग लोक में निवास करते हैं। वे दो प्रकारके देखे जाते हैं; एक तो सुखी हैं और दूसरे दुःखी। मर्त्य लोक में रहने वाले वंशज जिनके लिये श्राद्ध करते और दान देते हैं, वे सभी वहाँ हर्ष में भरकर देवताओं के समान प्रसन्न होते हैं। परंतु दुःखी पितर जिनके लिये उनके वंशज कुछ भी दान नहीं करते, वे भूख-प्यास से व्याकुल और दुःखी देखे जाते हैं।
एक समयकी बात है, अग्निष्वात्त आदि सभी पितर देवराज इन्द्रके पास गये। महाराज ! इन्द्र ने उन्हें आया देख सम्पूर्ण देवताओं के साथ भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया। इसके बाद जब वे देव दुर्लभ पितृलोक को जाने लगे, तब क्षुधा पिपासा से पीड़ित रहने वाले मर्त्य पितरों ने दिव्य स्तोत्रों से, पितृसूक्त के मन्त्रों से तथा पितरों को सन्तुष्ट करने वाले अन्यान्य वैदिक स्तोत्रों से उन सबकी स्तुति करके दीनतापूर्ण वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया। तब वे दिव्य पितर प्रसन्न होकर उनसे बोले- 'सुव्रतो! हम सब तुम लोगों पर प्रसन्न हैं, बोलो तुम क्या चाहते हो ?'
मर्त्य पितर बोले- दिव्य पितरगण ! आप हम मनुष्यों के पितर हैं। अपने कर्मों द्वारा मर्त्यलोक से स्वर्गलोक में आकर देवताओं से साथ निवास करते हैं, परंतु यहाँ हमें अत्यन्त भयंकर भूख और प्यास का कष्ट होता है। जान पड़ता है, हम आग में जल रहे हैं। यहाँ के नन्दन आदि वनों में बड़े सुन्दर-सुन्दर वृक्ष है। सब में फल लगे हुए हैं, परंतु उन फलों को जब हम हाथ में लेते हैं और यत्नपूर्वक जोर-जोरसे खींचते हैं तो भी वे डाली से टूटकर अलग नहीं होते। प्यास से पीड़ित होकर यदि हम देवनदी गंगा का जल हाथ में उठाते हैं और पीते हैं, तब हमारे हाथ में उस जल का स्पर्श ही नहीं होता। इस स्वर्गलोक में कोई खाता-पीता नहीं दिखायी देता । अतः यहाँ का निवास हमारे लिये अत्यन्त भयंकर हो गया है। यहाँ जो देवता और गुह्यक आदि हैं, वे सब विमान में बैठे हुए प्रसन्नचित्त दिखायी देते हैं। इन्हें भूख-प्यास का कष्ट नहीं है। ये अनेक प्रकार के भोगों से सम्पन्न हैं।
क्या हम सब लोग भी कभी ऐसे हो सकेंगे ?
भूख-प्यासके कष्टसे रहित हो परम सन्तोष पा सकेंगे ? तबन्!
दिव्य पितरों ने कहा - इन्द्र आदि केवल दूसरे-दूसरे कार्यों में व्यग्र होकर जब हमारे लिये श्राद्ध नहीं करते, दान नहीं देते, तब हम लोगों की भी ऐसी ही कष्टपूर्ण दशा हो जाती है। उस समय हम वहाँ से आकर देवताओं से प्रार्थना करते हैं। उसके बाद जब ये लोग श्राद्ध तर्पण द्वारा हमें तृप्त करते हैं, तब हमें तृप्ति प्राप्त होती है। इसी प्रकार तुम लोगों के जो वंशज एकाग्रचित्त होकर तुम्हारे लिये श्राद्धका दान देते हैं। उससे तुम लोग भी क्यों नहीं तृप्त हो ओगे ?
अब प्रमादी वंशज पितरों का तर्पण नहीं करते, तब उनके पितर स्वर्ग में रहने पर भी भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं; फिर जो यम लोक में पड़े हैं, उनके कष्टों का कहना ही क्या है?
इतना कहकर दिव्य पितरों ने मर्त्य पितरों को साथ ले ब्रह्मा के समीप गमन किया और उनकी तथा अपनी शाश्वत तृप्ति के लिए उपाय पूजा।
तब ब्रह्मा जी ने कहा - पितरो! यदि मनुष्य पिता, पितामह, और प्रपितमाह के उद्देश्य से तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्धप्रमातामह के उद्देश्य से श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और मातामह से लेकर मुझतक सभी पितर तृप्त हो जायँगे। जिस अन्न से मनुष्य अपने पितरों की तृप्ति के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त करेगा और उसी से भक्ति पूर्वक पितरों के निमित्त पिण्डदान भी देगा, उससे तुमहें सनातन तृप्ति होगी।
अमावस्या के दिन अपने वंशजों द्वारा श्राद्ध और पिंड प्राप्त करने से पितरों को एक माह की तृप्ति होगी। जबकि सूर्य कन्या राशि में है, जो व्यक्ति आश्विन कृष्ण पक्ष (पितृपक्ष या महालय) में मृत्यु की तारीख को पितरों के लिए श्राद्ध करता है, वह एक वर्ष के लिए पितरों को संतुष्ट करेगा। उस समय शाक के द्वारा भी जो तुम्हारा श्राद्ध नहीं करेगा, वह धनहीन चांडाल होगा। जो मनुष्य उसके साथ बैठना, सोना, खाना, पीना, छूना-छुलाना अथवा वार्तालाप आदि व्यवहार करेंगे, वे भी महापापी माने जायेंगे, उनके संतान की वृद्धि नही होगी। उन्हें किसी भी तरह से सुख और धन की प्राप्ति नहीं होगी। यदि मनुष्य गया शीर्ष में जाकर एक बार भी श्राद्ध करता है, तो उसके प्रभाव से आप सभी पितृ हमेशा के लिए संतुष्ट हो जाएंगे।
भर्तृयज्ञ कहते हैं-राजन् ! ऐसा जानकर विज्ञ पुरुष को चाहिये कि पितरों को तृप्त करने की इच्छा रखकर वह उक्त समयों में श्राद्ध अवश्य करे। इहलोक और परलोक में उसकी उन्नति चाहने वाले पुरुष को विशेषतः गया शीर्ष में जाकर श्राद्ध करना चाहिये। जो मनुष्य अमावस्या के दिन श्राद्ध नहीं करता, उसके पितर भूख-प्यास से पीड़ित हो बहुत दुःखी होते हैं। मन-ही-मन तृप्ति की अभिलाषा रखकर वे प्रेतपक्ष की प्रतीक्षा करते रहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे किसान लोग रात दिन वर्षा की राह देखते हैं। पितृपक्ष बीत जानेपर भी जब उन्हें श्राद्ध का अन्न नहीं मिलता, तब वे जब तक कन्या राशिपर सूर्य रहते हैं, तबतक अपनी सन्तानों द्वारा किये हुए श्राद्ध की प्रतीक्षा करते हैं। उसके भी बीत जाने पर कुछ पितर तुला राशि के सूर्य तक पूरे कार्तिक मास में अपने वंशजों द्वारा किये जानेवाले श्राद्ध की राह देखते हैं। जब सूर्यदेव वृश्चिक राशिपर चले जाते हैं, तब वे पितर दीन एवं निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं।
राजन्! इस प्रकार पूरे दो मास तक भूख-प्यास से व्याकुल पितर वायुरूप में घर के दरवाजों पर खड़े रहते हैं। अतः जब तक कन्या और तुला पर सूर्य रहते हैं, तबतक तथा अमावस्या के दिन सदा पितरों के लिये श्राद्ध करना चाहिये। विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चाहिये। कन्या और तुला में श्राद्ध न हो तो अमावास्या को अवश्य करे। वह भी न हो तो एक बार गयाजी में आकर श्राद्ध कर दे, जिससे नित्य श्राद्ध का फल प्राप्त होता है।
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)