हिन्दु सनातन संस्कृति में श्राद्ध पक्ष का बहुत अधिक महत्व होता है। श्राद्ध पक्ष को पितृ पक्ष के नाम से भी जाना जाता है। श्राद्धपक्ष में पितरों को अन्न एवं जल दिया जाता है। पितृ पक्ष में शास्त्रों की विधि से पितरों का तर्पण करने से पितरों का आर्शीवाद प्राप्त होता है और पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
श्राद्धकल्प के संदर्भ में स्कंन्दपुराण के नागरखण्ड-उत्तरार्ध में उल्लेख मिलता है, कि - एक समय महामुनि मार्कण्डेयजी राजा रोहिताश्व के यहाँ पधारे और यथायोग्य सत्कार ग्रहण करने के बाद उन्हें कथा सुनाने लगे। कथा के अन्त में राजा रोहिताश्व ने कहा- 'भगवन्! मैं श्राद्धकल्प का यथार्थरूपसे श्रवण करना चाहता हूँ।'
मार्कण्डेयजी बोले - राजन् ! यही बात आनर्तनरेश ने भर्तृयज्ञ से पूछी थी, वही प्रसंग सुनाता हूँ।
आनर्त ने पूछा- ब्रह्मन्!
भर्तृयज्ञ ने कहा- राजन्! विद्वान् पुरुष को अमावास्या के दिन अवश्य श्राद्ध करना चाहिये। क्षुधा से क्षीण हुए पितर श्राद्धान्न की आशा से अमावास्या तिथि के आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं, जो अमावास्या तिथि को जल या शाक से भी श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होते हैं और उसके समस्त पातकों का नाश हो जाता है।
आनर्त ने पूछा- ब्रह्मन् ! विशेषतः अमावास्याको श्राद्ध करनेका विधान क्यों है? मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभाशुभ गतिको प्राप्त होते हैं; फिर श्राद्धकाल में वे अपने पुत्र के घर कैसे पहुँच पाते हैं ?
भर्तृयज्ञ ने कहा- महाराज! जो लोग यहाँ मरते हैं, उनमें से कितने ही इस लोक में जन्म ग्रहण करते हैं, कितने ही पुण्यात्मा स्वर्गलोक में स्थित होते हैं और कितने ही पापात्मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं।
कुछ जीव भोगानुकूल शरीर धारण करके अपने किये हुए शुभ या अशुभ कर्म का उपभोग करते हैं।
राजन् ! यमलोक या स्वर्गलोक में रहनेवाले पितरों को भी तबतक भूख-प्यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता या पिता से तीन पीढ़ी के अन्तर्गत रहते हैं— जबतक वे श्राद्धकर्ता पुरुषके — मातामह, प्रमातामह या वृद्धप्रमातामह एवं पिता, पितामह या प्रपितामह पदपर रहते हैं, तबतक श्राद्धभाग ग्रहण करने के लिये उनमें भूख-प्यासकी अधिकताहोती है।
पितृलोक या देवलोक के पितर तो श्राद्धकाल में सूक्ष्म शरीर से आकर श्राद्धीय ब्राह्मणों के शरीरमें स्थित होकर श्राद्धभाग ग्रहण करते हैं; परंतु जो पितर कहीं शुभाशुभ भोगमें स्थित हैं या जन्म ले चुके हैं, उनका भाग दिव्य पितर आकर ग्रहण करते हैं और जीव जहाँ जिस शरीर में होता है- वहाँ तदनुकूल भोगकी प्राप्ति कराकर उसे तृप्ति पहुँचाते हैं। ये दिव्य पितर नित्य एवं सर्वज्ञ होते हैं।
पितरों के उद्देश्य से सदा ही अन्न और जल का दान करते रहना चाहिये। जो नीच मानव पितरों के लिये अन्न और जल न देकर आप ही भोजन करता या| जल पीता है, वह पितरों का द्रोही है। उसके पितर स्वर्ग में अन्न और जल नहीं पाते हैं, इसलिये शक्ति के अनुसार अन्न और जल उनके लिए अवश्य देना चाहिये। श्राद्ध द्वारा तृप्त किये हुए पितर मनुष्य को मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं।
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)