पंचमहाभूत कौन-कौन से हैं?
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा ।।
यह पूरा शरीर , दुनिया और संपूर्ण ब्रह्मण्ड केवल पांच तत्वों के मिश्रण से निर्मित है। हरेक वस्तु में यही पांच तत्व समाहित है। इन पांच तत्वों के संयोजन के बिना किसी की कल्पना नही की सकती है। क्योंकि यहीं पांच तत्व प्रकति है।
इन पांच महाभूतों का प्रभाव संसार की हर सजीव व निर्जीव वस्तु और पदार्थ दोनों पर सामान रुप से पड़ता है। इसके अतिरिक्त प्रकति या वातावरण (पर्यावरण) की निर्भता और नियमितता का संतुलन इन पांच महाभूतों के द्वारा ही संपन्न होता है। वास्तुशास्त्र भी इन पंचतत्वों (पांचमहाभूतों) के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए निर्माण (श्रजन) में अहम भूमिका निभाता है। वास्तु का मुख्य उद्देश्य हैं कि संपूर्ण ब्रह्मांड की शाक्ति और सकारात्मक ऊर्जा जन-जन को प्राप्त हो सके सके। जिससे वह सुखमय व शांतिपूर्ण जीवन की सफल यात्रा कर सकें। वास्तु शास्त्र में इन पांच महाभूतों के गुणों को क्रमवार इस प्रकार के बताया गया है। गंध, रस , रुप, स्पर्श और शब्द ।
इंसान का शरीर भी इन्हीं पंच तत्वों से मिलकर बनता है। जिसमें मानव के भौतिक शरीर में इस प्रकार से स्थान प्राप्त होते है। जैसे - पंच चक्र मूलाकार , स्वाधिष्ठिान , मणिपुर, अनाहत और विशुद्ध।
आइये अब बारी-बारी से जानतें है। इन पांच तत्वों को विस्तार से जिनके संयोजन से यह संसार चल रहा है और बिना इन पांच तत्वों के किसी की भी कल्पना करना ही व्यर्थ है।
अनादि काल से इन पांच तत्वों के संदर्भ में ऋषि मुनियों का मत रहा है। कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण इन पांच महाभूतों के संयोजन से ही हुआ है। जिसे प्रकति कहते हैं। यदि इन पांच तत्वों का संयोजन बिगड़ जाता है। तो प्राकृतिक घटनाओं जैसे बाढ़, भूकंप, ओलावृष्टि, अतिवृष्टि , अल्पवृष्टि, तापमान में भिन्नता इत्यादि घटनाएं देखने को मिलती है।
पंचमहाभूत के संदर्भ में कहा गया है। कि जिस प्रकार शरीर में इन पंचतत्वों के अभाव या असंतुलन से मनुष्य बीमार पड़ जाता है। ठीक उसी प्रकार भवन (घर, फैक्ट्री, कारखानों) में इन पांच तत्वों के असंतुलन से निवास व कार्य करने वालों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उसी प्रकार बाह्य वातावरण या पर्यावरण में इन पंचमहाभूतों की कमी अथवा असंतुलन के कारण समग्र सृष्टि को नाश की ओर ले जाती है।
संपूर्ण ब्रह्माण्ड में पृथ्वी, जल, अग्नि (तेज), वायु और आकाश तत्व की सत्ता सभी जगह पर विद्यमान है। इन महाभूतों के बिना इस संपूर्ण संसार की कल्पना करना संभव नही है। संपूर्ण सौरमण्डल में ग्रह, नक्षत्र, तारा मण्डल, आकाश गंगा इत्यादि के मूर्तत्व में आनुपातिक रुप से पंचमहाभूतों का ही योगदान सर्वोपरि है।
पंचतत्व के महत्व को बताते हुए वास्तु आर्ट के को-फाउंडर वास्तुविद् रविन्द्र दाधीच जी कहते हैं। कि यदि हमने पंचतत्व को ठीक से नही समझा तो हम ईश्वर जल्दी से नही समझ सकते हैं। क्योंकि हमारी दृष्टि में ये पंचमहाभूत ही ईश्वर है।
सृष्टि और पंचतत्व का क्या संबंध है -
क्षित्यपतेजोमरुद्व्योम अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये सभी पंचतत्व हमें ईश्वर के द्वारा प्राप्त हुए हैं या फिर यूं कहें कि यह ईश्वर का ही रुप हैं।
- आकाश तत्व की उत्पत्ति: सृष्टि के आरंभ में सर्वप्रथम ईश्वर की चेतनाशाक्ति के प्रेरणा से शब्द तन्मात्रा का जन्म हुआ। जिससे आत्मा का बोध कराने वाले आकाश तत्व की उत्पत्ति हुई।
- वायु तत्व की उत्पत्ति: आकाश तत्व की उत्पत्ति हो जाने के पश्चात निष्क्रिय शांत आकाश में कालगति से विकार होने पर उसमें गयात्मक स्पर्श से वायु तत्व का सृजन हुआ।
- अग्नि तत्व की उत्पत्ति : वायु तत्व की उत्पत्ति के बाद ईश्वर कृपा की प्रेरणा से महाबलवान वायु के विकृत होने पर तेजोमय रुप अग्नि की उत्पत्ति हुई।
- जल तत्व की उत्पत्ति :अग्नितत्व के विकृत होने पर उससे द्रव्य रस (जल) की उत्पत्ति हुई।
- प्रथ्वी तत्व की उत्पत्ति : दैव प्रेरित रस स्वरुप जल के विकृत होने पर गंध गुणधर्म पृथ्वी तत्व की उत्पत्ति हुई और फिर इन पंच तत्व को मिलाकर पंचमहाभूतों का निर्माण हुई और यह पांच तत्व ही सृष्टि के मूलभूत आधार अंग हैं।
पंचमहाभूतों के निर्माण के उपरांत इन पांच तत्वों के गुणों का वर्णन इस प्रकार से हुआ अर्थात प्रत्येक तत्व में कितने गुण होते हैं। इसको विस्तार पूर्वक वर्गीकरण किया गया है - जैसे प्रथ्वी तत्व में पांच गुण उपस्थित हो होते हैं। जल तत्व में चार गुण होते है। इसी प्रकार अग्नि तत्व में तीन गुण होते हैं। वायु में दो गुण और आकाश तत्व में एक ही गुण विद्यमान होता है। जैसे की उपरोक्त में बताया गया है। कि प्रथ्वी तत्व का गुण गंध, जल तत्व का गुण रस, अग्नि तत्व का गुण रुप, वायु तत्व का गुण स्पर्श और आकाश तत्व का गुण शब्द होता है। इन पंचमहाभूतों को तन्मात्राओं के द्वारा ही जाना पाना संभव है और बिना इसके पंचमहाभूतों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना एक असंभव कार्य के जैसा है।
शरीर का पंचमहाभूतों व पर्यावरण से क्या संबंध
महाभूतानि खं वायुरग्निरापः क्षितिस्था ।
शब्दस्पर्शश्च रुपं च रसो गन्धश्च तद्रगुणाः ।।
इसकी पुष्टि चक्र संहिता में की गई है और बताया गया है। कि ब्रह्मांड की प्रत्येक चर-अचर चाहे शरीर हो, वास्तु हो या फिर पर्यावरण या प्रकृति सभी इन्हीं पंचमहाभूतों से निर्मित हैं। इसी बात का वर्णन चरक संहिता में भी मिलता है। जिसमें कहा गया है। कि
सर्वद्रव्यं पांचभौतिकम् अर्थात यह इंसान का शरीर पंचतत्वों से मिलकर बना है। और अंततः दाह संस्कार से इन्हीं पंचतत्वों में विलीन होकर सृष्टिसार पर्यावरण या वातावरण में समा जाता है। प्रथ्वी, जल , अग्नि, वायु और आकाश तत्वों से निर्मित इस शरीर में विभिन्न पंचमहाभूतों की प्रधानता के साम्यावस्था के आधार पर ही विभिन्न मानव स्वभाव वर्गाकृत होते है और तदनुसार ही संबद्ध वास्तु और पर्यावरण से परस्पर स्थापित होते हैं।
- प्रथ्वी तत्व से अस्थि, मांस, नख (नाखून). नस (नाड़ी) , त्वचा का निर्माण होता है।
- जल तत्व से मल, मूत्र, वीर्य, रक्त, लार का निर्माण होता है।
- अग्नि तत्व से हंसी, नींद, भूख, भ्रम, आलस्य, तेज उत्पन्न होता है।
- वायु तत्व से धारण करना , चलना, चलाना, फेंकना, सिकुड़ना और फैलना जैसी क्रियाएं होती हैं।
- आकाश तत्व से काम, कोध्र, लोभ, लज्जा, मोह आदि बनते हैं।
शरीर में जिस तत्व की अधिकता होती है, उसी तत्व की छाया, रंगत आभास व्यक्ति के बाह्या शरीर में देखने को मिल जाता है। और उसके आपपास के पर्यावरण या वातावरण की सूचक भी है। शरीर में जिन पदार्थ की कमी होती है वह कभी भी प्रकट नही होते हैं। जो चीज सूक्ष्मातिसूक्ष्म रुप में भी विद्यमान है उसे छिपाया नही जा सकता है। यह सृष्टि दर्शन का मूल वाक्य है। इसकी पुष्टि श्रीमद्भागवत गीता में की गई है और कहा है। ।। नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।
पंचतत्व, वास्तु और ज्योतिष के बीच क्या संबंध है
हम सभी लोग हर तरह से ईश्वर अथवा प्रकृति से सर्वथा जुड़े हैं। हमारे सूक्ष्म से सक्ष्म अंग में होने वाला स्पन्दन ही सृष्टि संचालक तत्व है। तथा इसका प्रभुत्त सभी जगह पर अनुभव किया जाता है। प्रकृति का स्पन्दन, स्फुरण, परिवर्तन अथवा विकार मानव शरीर पर अपना प्रभाव छोड़ता है। शकुन शास्त्र की भी सत्ता इसी नियम पर अर्थात सापेक्षता के सिद्धांत पर आधारित है।
शिशु जब जन्म लेता है या फिर गर्भ में आता तब प्रकृति के स्वरुप का स्पन्दन का प्रभाव जातक पर पड़ता है। इसी कारण ज्योतिष में यह नियम बना है। कि जन्म के समय जो ग्रह बलवान होते हैं, उन्हीं ग्रहों से जातक का स्वरुप और शरीर सम्पदा निर्धारित होती है। इसलिए जन्म लग्न की ऱाशि, नवमांश राशि, चन्द्रराशि, बलवान ग्रह आदि के आधार पर जातक के स्वरुप, रंग, आकार, प्रकार, स्वभावादि के निर्णय का सिद्धांत बना।
ज्योतिष शास्त्र में सूर्य और मंगल अग्नि तत्व के स्वामी है। बुध प्रथ्वी तत्व का , चन्द्रमा एवं शुक्र जलतत्व के , शनि वायु तत्व का और गुरु आकाश तत्व के स्वामी कहे जाते हैं। इंसान के शरीर में मस्तिष्क में आकाश तत्व है, कन्धों में अग्नि तत्व है। नाभि (उदर केन्द्र) में वायु तत्व है। घुटनों में पृथ्वी तत्व का निवास होता है। और पैरों में जल तत्व का प्रभाव होता है।
हस्त मुद्रा या हस्तशास्त्र की दृष्टि से हमारे हाथ की पांच अंगुलियों में पांच तत्वों का बोध होता है।
- अंगुठा अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है।
- तर्जनी वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करती है।
- मध्यमा आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करती है।
- अनामिका प्रथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करती है।
- कनिष्ठिका जल तत्व का प्रतिनिधित्व करती है।
वास्तु व ज्योतिष के अनुकूल वातावरण पंचतत्व के संतुलन में सहायक होकर हमारा मार्गदर्शक है। एक बीज का अंकुरण होकर पौधे या वृक्ष में परिणित होना, इन्हीं पंचतत्वों के क्रमिक विकास के चिन्तन का परिचालक है और जब उसी पौधे या वृक्ष को काटा जाता है तो महज पर्यावरण ही नहीं अपितु पंचमहाभूतों की हत्या का पाप होता है।
जिस प्रकार हमारा शरीर अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल और आकाश से मिलकर बना है। उसी प्रकार वनस्पति, खेतीबड़ी, पौधों के सर्वांगीण विकास के लिए भी इन पंचतत्वों की जरुरत होती है।
वृक्षों और पौधों को वास्तु या घर में उचित महत्व देने से हमें प्रकृति के साथ रहने का आनंद प्राप्त होता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में प्रत्येक वृक्ष का दिशानुसार शुभाशुभ फल दिया हुआ है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त वृक्ष और पौधे मानव जीवन के कल्याण के लिए है। प्रत्येक इंसान को अपनी राशि व नक्षत्र के अनुसार वृक्षारोपण करना चाहिए। इससे अशुभ प्रभाव से छुटकारा मिलता है। और पर्यावरण तथा पंचतत्व से तादात्म्य स्थापित होता है ।
जिस प्रकार से भवन निर्माण में वास्तु व्यवस्था को प्रमुख स्थान दिया गया है, ठीक उसी प्रकार गृह विशेष अथवा स्थान विशेष की बाह्य वास्तु व्यवस्था को अनुकूलता प्रदान करने के लिए पेड़-पौधों का रोपड़ वास्तु अनुरुप करना चाहिए।
घर के पास पेड़ की स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि प्रथम और द्वितीय प्रहर की धूप को मकान पर पड़ने में अवरोध उत्पन्न नहीं हो, क्योंकि दिन की धूप घर पर पड़ने से मकान की नमी समाप्त हो जाती है, जिससे कीटाणुओं को पनपने का वातावरण नही रहता है।
- पृथ्वी तत्व: पृथ्वी तत्व एक प्रकार का भौतिक आधार है। इसका स्वामी ग्रह बुध है और कारक तत्व गंध है। पृथ्वी तत्व हड्डी और मांस का प्रतिनिधित्व करता है। पृथ्वी तत्व में तीनो दोष वात दोष , पित्त दोष और कफदोष आते हैं। वास्तुवि्द और खगोल शास्त्री बताते हैं। कि पृथ्वी एक बड़ी चुम्बक के आकार जैसी है। जिसमें उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव भी है। जिसके कारण दिशा सूचक चुम्बक का उत्तरी ध्रुव सदैव उत्तर दिशा का संकेत देता है। पृथ्वी तत्व के इसी चुम्बकीय गुण का प्रयोग वास्तुशास्त्र में सर्वाधिक किया जाता है। प्रथ्वी तत्व के इस गुण का उपयोग भूमि पर दबाव बनाने के लिए किया जाता है। वास्तु शास्त्र में सदैव इस बात पर अधिक जोर दिया जाता है। कि दक्षिण में अधिक भार रखना चाहिए। वास्तु के इसी सिद्धांत के अनुसार दक्षिण की दिशा में सिर रखकर सोने के लिए भी कहा जाता है। इस बात के संदर्भ में हिन्दू धर्म के धार्मिक शास्त्र कहते है। कि दक्षिण दिशा में पैर करने नही सोना चाहिए। क्योंकि दक्षिण दिशा में यम देव का वास होता है। इस तत्व पर पंचमहाभूतों के संयोग से सृष्टि का निर्माण हुआ है। प्रथ्वी तत्व सभी का भरण पोषण करता है। इसी वजह से पृथ्वी को 'माता' या अन्नपूर्णा माँ भी कहते हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी प्रकार के भवन निर्माण का प्रारंभ करने से पूर्व भूमि का विधान है। पृथ्वी तत्व में शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा विशेषतया गंध के गुण विद्यमान होते हैं, जिससे वस्तु या पदार्थ की श्रेष्ठता ज्ञात होती है। वृषभ, कन्या और मकर राशि पृथ्वी की प्रतिनिधि है। ग्रहों में बुध ग्रह पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधतत्व करता है। इन सभी रशियों में बुध की भाव स्थिति परस्पर संबंध या जलतत्व ग्रहों चंद्रमा और शुक्र से भी तत्व मैत्री संबंध जन्मकुण्डली में देखकर इस तत्व के विकास या मात्रा की जानकारी मिलती है। यहीं से हमारे वास्तु और पर्यावरण से तादात्म्य के रुझान का ज्ञान होता है। भवन निर्माण में भूमिपूजन, वास्तु शान्ति इसी तत्व की महत्ता को दर्शाते हैं।
ग्राउण्ड फ्लोर आवासीय घरों अथवा परिसर में पृथ्वी तत्व अधिक या उचित मात्रा में मिलता है। जबकि बुहमंजिला इमारतों के ऊपरी तलों (फ्लैट) पर रहने वाले लोगों में इसकी पर्याप्त मात्रा मिलने में थोड़ी सी परेशानी होती है। जिन पांचतत्वों से हमारा शरीर मिलकर बना है। उसमें से मिट्टी (पृथ्वी) तत्व सबसे प्रधान है। धरती में सभी महाभूतों का समावेश। श्रुति में पृथ्वी को अन्न की भी संज्ञा दी गई है। पृथ्वी तत्व की प्राप्ति के लिए आप रोज सुबह भूमि पर नंग पैर टहल सकते हैं, बीजारोपण कर सकते हैं, वृक्षारोपण कर सकते हैं, भूमिशयन भी कर सकते हैं, मिट्टी के बर्तन में खानपान, मिट्टी की ठण्डी या गरम पट्टी (लेप) का प्रयोग, रज स्नान या पंक स्नान (Mudbath) , पृथ्वी मुद्रा , अपान मुद्रा इत्यादि सहज क्रियाकलापों से हम इस की पूर्ती कर पर्यावरण की भी अनुकूलता प्राप्त कर सकते है।
पृथ्वी तत्व के ऊपर अलग-अलग महान कवियों एवं लेखकों ने अपने अनुभव के आधार में बहुत कुछ लिया है। पृथ्वी तत्व की महत्ता के संदर्भ में कबीदास जी लिखते है।
।। माटी ओढ़ना , माटी बिछौना, माटी दाना-पानी रे ।।
उन्होंने हजारों वर्ष पहले इस पंचमहाभूत की महत्ता को समझ कर अपनी वाणी के माध्यम से समाज को संदेश दिया। कि हम सब (प्राणी) थलचर है अर्थात पृथ्वी में निवास करने वाले है। और प्राणियों का कल्याण इसी में है कि वह सदा सर्वदा पृथ्वी से संसर्ग (जुडकर) रहे। उन्होंने तो यहां तक भी कहां कि मिट्टी ही शरीर में धारण करें परंतु आज के युग में शायद सभी के लिए यह संभव नही है। परंतु योगीजन और साधु संत लोग ओढ़नी के रुप में मिट्टी को धारण किए हुए देखने को मिल जाते है। मिट्टी ही बिस्तर अर्थात भूमि शयन (जमीन पर सोना) चाहिए। मिट्टी से उपजे फलों, अन्नादि का भोज करें। क्योंकि मनुष्य की उत्पत्ति भी मिट्टी से हुई है और उसे एक दिन मिट्टी में ही मिलता है। अतः उत्तपत्ति और मरण के बीच की कालावधि दौरान प्रकृति के बीच ही रहना चाहिए।
- जल तत्व: पांच महाभूतों में से जल तत्व भी अपने आप में एक अद्वितीय तत्व है। जो समस्त प्राणियों तथा पेड़-पौधों के लिए बहुत ही जरुर है। अर्थात इसके बिना संसार के कल्पना भी नही की जा सकती है। इसी कारण से ईश्वर ने प्रथ्वी के निर्माण के साथ ही उसमें से दो तिहाई भाग को समुद्र से भर दिया। चन्द्र और शुक्र ग्रह को जल तत्व के ग्रह है। और जल तत्व के स्वामी भी चन्द्र व शुक्र ही है। जल तत्व का कारक तत्व रस को माना जाता है। जल के देवता वरुण तथा इन्द्र है और मतान्तर से ब्रह्मदेव को भी जल के देवता के रुप में स्वीकार किया गया है। वास्तु शास्त्र के अनुसार जल तत्व का संबंध भूखण्ड या फिर फैक्ट्री की उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) से संबंध होता है। जल तत्व का प्रतिनिधित्व स्वाद से होता है। जल तत्व का संतुलन होना बहुत ही आवश्यक होता है। क्योंकि जल तत्व संतुलित होने पर घर में रहने वाले लोगों की सोच सकारात्म और दूरदृष्ठि होती है। उनको उन्नति के अवसर प्राप्त होते हैं। घर के सभी सदस्यों में कर्मठशील प्रवृत्ति के होते है। जल तत्व संतुलित होने पर प्रतिरोध क्षमता अच्छी होती है और कठिन से कठिन परिस्थितियों को अवसर में बदल देने की क्षमता का निर्माण उनके अंदर होता है। जल तत्व का संतुलन बनाने से आध्यामित्क की प्राप्ति के साथ संसारिक कार्यों में निपुणता व चतुरता होती है।
यदि घर के उत्तर दिशा में कोई दोष की पुष्ठि होती है। तो ऐसे में जल तत्व के असंतुलित हो ऐसे में वहां रहने वाले वाली की मानसिकता संकीर्ण हो जाती है। उन्नति के अवसरों में कमी आने लगती है। जिन्दगी के मुकाम तक पहुंचने की वजह वह जीवन की परेशानियों में उलझे रहते हैं। अपने जीवन में कुछ खास हासिल नही कर पाते हैं।
- अग्नि तत्व: अग्नि तत्व से ही जीवन का सौन्दर्य है। इसलिए सूर्य को भी सौन्दर्य का प्रतीक माना जाता है। क्योंकि सूर्य भी अग्नि तत्व की श्रेणी में ही गिना जाता है। कालपुरुष की प्रथम त्रिकोण राशियाँ इसी अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करती है। सर्वविदित है कि सूर्य के प्रकाश और ऊष्मा से अग्नि ऊर्जा प्राप्त होती है। सूर्य की सकारात्मक और अच्छी ऊर्जा प्राप्त करने हेतु घर या भवन की उत्तर और पूर्व दिशाएं नीची और खुले स्थान युक्त हों और दक्षिण पश्चिम दीवार, स्थान को ऊँचा या बंद रखें, जिससे सूर्य की नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव से बचाव हो।
जन्म पत्रिका में सूर्य का अग्नि तत्व राशियों से जुड़ाव जातक को विशेष ऊर्जावान, ओजस्वी, और जोशीला बनाता है। और इस तत्व की अधिकता से व्यक्ति उत्तेजक, अशांत और त्वरित क्रियात्मक स्वभाव का भी हो सकता है। से फूल खिलते हैं, फल पकते हैं, औषधियों में पृथक-पृथक गुण उत्पन्न होते हैं। इसी से समुद्र या विशाल नदियों का जल बादल बनकर पृथ्वी पर जल बरसाता है। इसी से हमारा अन्न और भोजन पकता है और पचता (जठाग्नि) भी है।
सूर्य अथवा अग्नि तत्व से ही अन्य सभी तत्वों को चैतन्य (चेतना) का उन्मेष और निमेष होता है। पर्यावरण की और मनुष्य की लालिमा का स्त्रोत सूर्य है। पौधों की नसों में हरे रंग का खून दौड़ता है, जिसे अंग्रेजी में क्लोरोफिल कहते हैं और मनुष्य की नसों में लाल रंग का , जिसको हीमोग्लोबिन कहते हैं। मनुष्य के भीतर इस लाल रंग को भी सूर्य की रश्मियों की उतनी ही जरुरत होती है जिनकी कि पौधों को इस बात का वर्णन प्रश्नोपनिषद् में किया गया है ।। यत्सर्वेप्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान् रश्मिषु सनिघने।। अर्थात जब सूर्य प्रकाशमान होता है , तब वह समस्त प्राणों को अपनी किरणों में रखता है। उसमें व्यक्ति और प्रकृति दोनों ही समाहित हैं।
अथर्ववेद में अग्नि तत्व के संदर्भ में कहा गया है। कि ।।उद्यन्नादित्य रश्मिभिः शीषर्णे रोगममीनशः।। अर्थात वेद कहते हैं, कि प्रातःकाल की सूर्य किरणोक्ष (नीलोत्तर किरणों) से व्याधियों का नाश और शमन होता है।
- आकाश तत्व:पर्यावरण में आकाश तत्व की प्राप्ति हमें विशालकाय वृक्षों जैसे - बरगद, कदम्ब, पीपल, वट की छाया या शरण से होती है। वास्तु अथवा घर में चहारदीवारी या छत की ऊँचाई से हमें यह तत्व मिलता है। जो आज कल फ्लैट आदि आवासों में कम रखा जाना अनुचित होकर इस तत्व के विकास को रोकता है। मंदिर, गुरुद्वारे, गिरिजाघर के ऊँचे गुम्बज, ऊँची मीनारों, पर्वतीय पहाड़ी स्थलों, पर्वतारोहण, शून्य (हस्त) मुद्रा इत्यादि क्रियाकलापों से भी हम आकाश तत्व सहजता से ग्रहण कर पंचतत्व संतुलन स्थापित कर सकते हैं।
वातावरण का आधार पर्यावरण या पंचतत्व है। इसलिए वास्तुशास्त्र जीवन के घटनाक्रम की अनुकूलता या प्रतिकूलता का कारण भी उसी वातावरण को मानता है। वास्तु हमारे वातावरण में विद्यमान गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शाक्ति एवं सौर ऊर्जा के समुचित प्रयोग के द्वारा जीवन को प्रगति और संतुष्टि की ओर ले जाता है। पंचतत्वों का उचित संतुलन पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य ग्रहों पर नही पाया जाता है। इसलिए पृथ्वी पर मानव ओर पर्यावरण दोनों का अस्तित्व है। प्रकृति की गतिविधियोंं का कितना ही अधिक विश्लेषण किया जाएँ, यही ज्ञात होता रहेगा कि वह अत्यन्त दयामयी और समृद्ध है। किन्तु इसमें छेडछाड़ होेने पर उग्रता और रौद्ररुप भी संभव है। वस्तुतः पंचतत्वों का संतुलन ही प्रकृति का सर्वोधिक महत्वपूर्ण और सार्वभौम अंतः सूत्र है।
ज्योतिष शास्त्र की सभी रशियाँ जो चार तत्वों में विभाजित हैं, मुख्य रुप से इसी आकाश तत्व की भाग होती है। सभी में यह तत्व समाहित है। आकाश ब्रह्माण्ड का भी आधार है। उपवास इस तत्व की प्राप्ति का एक प्रबल साधन है। समुचित विश्राम, नींद से भी हमें आकाश तत्व की प्राप्त होती है।
- वायु तत्व : घर , फैक्ट्री, कारखाने, ऑफिस अथवा वास्तु में वायु के निर्बाध संचालन हेतु उत्तर-पश्चिम, उत्तरदिशा को सर्वोधिक खुला रखना चाहिए। वायु तत्व की प्राप्ति के लिए वायव्य कोण में वायु का स्थान होता है। इसलिए खिडकियों की व्यवस्था ऐसी करनी चाहिए। कि वहां रहने वालों या काम करने वालों के लिए हितकर हो। सूर्योदय पूर्व स्वर्गवेला में सभी दिशाओं की वायु सब प्रकार के दोषों से मुक्त होती है। इसलिए प्रातः बेला में वायु सेवन हितकर होता हैै।
पवन स्नान (वायुस्नान) , बाग-बगीचे की सैर, प्राकृतिक स्थल पर्यटन, पौधों, वृक्षों से संसर्ग, प्राणायाम, वायु मुद्रा, साइक्लिंग, घुड़सवारी, दौड़, खेलकूद, नृत्य इत्यादि क्रियाकलापों से वायु तत्व का समुचित विकास पंचतत्व संतुलन में सहायक होता है।
मिथुन, तुला, कुम्भ रशियां तथा शनि ग्रह इस तत्व का प्रतिनिधितत्व करते है या फिर यह इनके कारक ग्रह और रशियां हैं। जनकुण्डली में शनि का इन रशियों और कालपुरुष संबंधी तत्व के विकास में सहायक हैं।
वास्तु विद् - रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)