(पिछली कथा विश्वकर्मा जी के तप से वृत्रासुर की उत्पत्ति के शेष अंश)
लोमश जी स्कंद पुराण की कथा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, कि जब महर्षि दधीचि की पत्नी आश्रम के अंदर चली जाती है, देवता दधीचि जी से कहते हैं, कि हे! विप्रवर आप अपने शरीर की हड्डियां हमें अर्पित करें, जिससे दैत्यों का संहार हो। महर्षि ने कहा - मैंने हड्डियाँ आपको दे दीं। तब देवता बोले - भगवन्! आपके जीते-जी इन हड्डियों को हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
ब्रह्मार्षि ने हँसकर उत्तर दिया - बस क्षणभर खड़े रहिये, मैं अभी अपना शरीर त्याग देता हूँ। ऐसा कहकर दधीचि जी ने समाधि लग ली। उस परम समाधि के द्वारा अपना शरीर त्यागकर वे तत्काल उस ब्रह्मधाम में चले गये, जहाँ से फिर इस संसार में लौटना नही पड़ता। इस प्रकार भगवान शंकर के प्रिय भक्त मुनिवर दधीचि जी परोपकार के लिए शरीर त्यागकर ब्रह्मपद को प्राप्त हुए।
दधीचि जी के ब्रह्मलीन हो जाने पर, तब देवताओं के राजा इन्द्र सुरभि नाम गाय को बुलाकर कहते हैं, कि - 'तुम दधीचि जी के शरीर को चाटो।' 'बहुत अच्छा' कहकर सुरभि ने तत्काल दधीचि जी के शरीर को चाटना आरम्भ किया। उसने सब ओर से चाटकर उस शरीर को मांसरहित कर दिया। तब देवताओं ने वे हड्डियाँ ले लीं और उनके शस्त्र बनाये। उनकी पीठ की हड्डीसे 'वज्र' बना और शिर से 'ब्रह्मशिर' नामक अस्त्र तैयार किया गया।
ऋषिके शरीर की जो और भी बहुत-सी हड्डियाँ थीं, उन्हें भी उस समय देवताओं ने ग्रहण कर लिया। इस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण करके महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न हुए देवता वृत्रासुर को मारनेके लिये उद्यत हो बड़ी उतावली के साथ स्वर्गलोक में गये।
तत्पश्चात् महर्षि दधीचि जी की पत्नी सुवर्चा देवी, जिन्हें देवताओं की कार्यसिद्धि के लिये महर्षि ने आश्रम के भीतर भेज दिया था, वहाँ पुनः लौटकर आयीं और वहाँ जो कुछ हुआ था । वह सब उन्होंने अपनी आँखों से देखा- 'यह सब देवताओं की ही करतूत है' ऐसा जानकर उस सती-साध्वी सुवर्चा के मन में बड़ा क्रोध हुआ, उन्होंने अत्यन्त रुष्ट होकर शाप देते हुए कहा-'देवता आज से सन्तानहीन रहें। तपस्विनी सुवर्चा ने इस प्रकार देवताओंको शाप दे दिया और स्वयं एक पीपल वृक्ष के मूल भाग में बैठकर रोदन करने लगीं।
इसी समय उनके उदर से महात्मा दधीचि के पुत्र महातेजस्वी पिप्पलाद प्रकट हुए। माता सुवर्चा प्यासी आँखों से पुत्र पिप्पलाद की ओर देखती हुई हँसकर बोलीं- 'महाभाग! तुम दीर्घकालतक इस वृक्ष के ही समीप रहना। तुम मेरे आशीर्वाद से शीघ्र ही ऋषियों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करोगे।' अपने पुत्र के प्रति ऐसा कहकर साध्वी सुवर्चा श्रेष्ठ समाधि लगाकर पति के समीप चली गयीं। इस प्रकार उन्होंने पति के साथ सत्यलोक प्राप्त किया।
इधर वे देवतालोग अस्त्र-शस्त्रोंका निर्माण करके युद्ध के लिये उत्सुक हो दैत्यों के सामने गये। इन्द्र आदि देवता महान् बल और पराक्रम से युक्त थे। वे गुरु बृहस्पति को आगे करके भूमिपर आकर मध्य देश में ठहरे। उन सबके पास बड़े उत्तम शस्त्र थे । इन्द्र आदि देवताओं को आया हुआ सुनकर महातेजस्वी वृत्रासुर दैत्यवृन्द के साथ उनके समीप गया। महेन्द्र ने उस समरांगणमें महादैत्य वृत्रासुरको देखा। देवताओं और दानवों का एक दूसरे की ओर दृष्टिपात बड़ा अद्भुत था। उनमें वैर-भाव बहुत बढ़ा हुआ था। वे एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छा से अत्यन्त क्रोधमें भरकर अद्भुत स्वरमें गर्जना करने लगे।
देवताओं और दानवों के उस युद्धमें बजाये जाने वाले भयानक बाजे बड़ी गम्भीर ध्वनि में सुनायी देते थे। उस युद्ध में समस्त चराचर जगत् महान् भय के कारण अचेत हो गया। उस समय नमुचि नामक दैत्य इन्द्र के साथ युद्ध करने लगा। देवराज इन्द्र ने बड़े वेग से उस दैत्यपर वज्र का प्रहार किया, परंतु वज्रके आघात से भी नमुचिका एक रोम भी न टूट सका। तब इन्द्र ने नमुचिपर गदा मारी, किंतु वह गदा भी चूर-चूर हो गयी। यह देख इन्द्र ने एक बहुत बड़े शूल से उस दैत्य पर प्रहार किया। नमुचि के अंग का स्पर्श होते ही उस शूलके सैकड़ों टुकड़े हो गये।
इसी प्रकार नमुचि ने भी हँसते हुए अनेक प्रकार के शस्त्रोंसे देवताओं को मारा, परंतु इन्द्र पर प्रहार नहीं किया। उस समय इन्द्र मौन होकर बड़ी भारी चिन्ता में डूब गये। इसी बीच में उस महाभयानक संग्रामके भीतर इन्द्र को सम्बोधित करके आकाशवाणी हुई— 'महेन्द्र ! यह दैत्य देवताओं के लिये बड़ा भयंकर और घोरतर है। इसके लिये जल से निकला हुआ फेन ही दुर्लघ्य शस्त्र है। अतः उसी के द्वारा इस महान् असुर का शीघ्र संहार करो। दूसरे किसी शस्त्र से आघात करने पर यह असुर कभी मारा नहीं जा सकता।'
इस मंगलमयी दैवी वाणी को सुनकर अनन्त पराक्रम वाले इन्द्र समुद्र के तट पर गये और फेन प्राप्त करने के लिये प्रयास करने लगे। इन्द्र को समुद्रतट पर आया हुआ देख नमुचि क्रोध से मूच्छित हो उठा और शूल से आघात करके उन्हें कटु वचन सुनाने लगा। तब इन्द्र ने भी क्रोधमें भरकर अद्भुत फेन ग्रहण किया और उस फेन का प्रहार करके महादैत्य नमुचि को मार गिराया। इस प्रकार नमुचि के मारे जाने पर सब देवता और ऋषि साधुवाद देते हुए इन्द्र के प्रति सम्मान प्रकट करने लगे।
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)