वृंदावन के बहुत सारे प्राचीन भवन जैसे - नंदभवन, रास मंडल, मधुवन और रत्न मंडल इत्यादि वास्तु के अद्भूत नमूने है, जिनका निर्माण देवताओं के वास्तुकार विश्वकर्मा जी के द्वारा किया गया था, जिसके निर्माण की कथा का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में संक्षिप्त रुम में वर्णन मिलता है।
शिल्पिशिरोमणि विश्वकर्मा वृषभानु के आश्रम पर जाकर वहाँ से अपने सेवक गणों के साथ दूसरे स्थान पर गये। वे तत्त्वज्ञ थे, उन्होंने मन-ही-मन एक कोस लंबे-चौड़े एक मनोहर स्थान का विचार करके वहाँ महात्मा नन्द के लिये आश्रम बनाना आरम्भ किया। बुद्धि से अनुमान करके उनके लिये सबसे विलक्षण भवन बनाया। वह श्रेष्ठ भवन चार गहरी खाइयों से घिरा हुआ था, शत्रुओं के लिये उन्हें लाँघना बहुत कठिन था। उन चारों खाइयों में प्रस्तर जुड़े हुए थे। उन खाइयों के दोनों तटों पर फूलों के उद्यान थे, जिनके कारण वे पुष्पों से सजी हुई-सी जान पड़ती थीं और सुन्दर एवं मनोहर चम्पा के वृक्ष तटोंप र खिले हुए थे। उन्हें छूकर बहने वाली सुगन्धित वायु उन परिखाओं को सब ओर से सुवासित कर रही थी। तटवर्ती आम, सुपारी, कटहल, नारियल, अनार, श्रीफल (बेल), भृङ्ग (इलायची), नीबू, नारंगी, ऊँचे आम्रातक (आमड़ा), जामुन, केले, केवड़े और कदम्ब समूह आदि फूले-फले वृक्षों से उन खाइयों की सब ओ रसे शोभा हो रही थी। वे सारी परिखाएँ सदा वृक्षों से ढकी होने के कारण जल-क्रीड़ा के योग्य थीं। अतएव सबको प्रिय थीं।
परिखाओं के एकान्त स्थान में जाने के लिये विश्वकर्मा जी ने उत्तम मार्ग बनाया, जो स्वजनों के लिये सुगम और शत्रुवर्ग के लिये दुर्गम था। थोड़े-थोड़े जल से ढके हुए मणिमय खम्भों द्वारा संकेत से उस मार्ग पर खम्भों की सीमा बनायी गयी थी। वह मार्ग न तो अधिक संकीर्ण था और न अधिक विस्तृत ही था। परिखा के ऊपरी भाग में देवशिल्पी ने मनोहर परकोटा बनाया था, जिसकी ऊँचाई बहुत अधिक थी। वह धनुष के बराबर ऊँचा था। उसमें लगा हुआ एक-एक पत्थर पचीस-पचीस हाथ लंबा था। सिन्दूरी रंग की मणियों से निर्मित वह बड़ा ही सुन्दर दिखायी देता था। उसमें बाहर से दो और भीतर से सात दरवाजे थे। दरवाजे मणिसार निर्मित किवाड़ों से बंद रहते थे। वह नन्दभवन इन्द्रनीलमणि के चित्रित कलशों द्वारा विशेष शोभा पा रहा था। मणिसार रचित कपाट भी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। स्वर्णसार निर्मित कलशों से उसका शिखर भाग बहुत ही उद्दीप्त जान पड़ता था। नन्दभवन का निर्माण करके विश्वकर्मा नगर में घूमने लगे। उन्होंने नाना प्रकार के मनोहर राजमार्ग बनाये। रक्तभानुमणि की बनी हुई वेदियों तथा सुन्दर पत्तनों से वे मार्ग सुशोभित होते थे। उन्हें आर-पार दोनों ओर से बाँधकर पक्का बनाया गया था, जिससे वे बड़े मनोहर लगते थे। राजमार्ग के दोनों ओर मणिमय मण्डप बने हुए थे, जो वैश्यों के वाणिज्य-व्यवसाय के उपयोग में आने योग्य थे। वे मण्डप दायें-बायें सब ओर से प्रकाशित हो उन राजमार्गों को भी प्रकाश पहुँचाते थे।
तदनन्तर वृन्दावन में जाकर विश्वकर्मा जी ने सुन्दर, गोलाकार और मणिमय परकोटों से युक्त रासमण्डल का निर्माण किया, जो सब ओर से एक-एक योजन विस्तृत था। उसमें स्थान-स्थान पर मणिपय वेदिकाएँ बनी हुई थीं। मणिसार रचित नौ करोड़ मण्डप उस रासमण्डल की शोभा बढ़ाते थे। शृङ्गार के योग्य, चित्रों से सुसजित और शय्याओं से सम्पन्न थे। नाना जाति के फूलोंको सुगन्ध लेकर बहती हुई वायु उन मण्डप को सुवासित करती थी। उनमें रत्नमय प्रदीप जलते थे। सुवर्णमय कलश उनकी उज्ज्वलता बढ़ा रहे थे। पुष्पों से भरे हुए उद्यानों तथा सरोवरों से सुशोभित रासस्थल का निर्माण करके विश्वकर्मा दूसरे स्थान को गये। वे उस रमणीय वृन्दावन को देखकर बहुत संतुष्ट हुए। उनके भीतर जगह-जगह एकान्त स्थान में मन-बुद्धि से विचार और निश्चय करके उन्होंने वहाँ तीस रमणीय एवं विलक्षण वनों का निर्माण किया। वे केवल श्रीराधा माधव की ही क्रीड़ा के लिये बनाये गये थे।
तदनन्तर मधुवन के निकट अत्यन्त मनोहर निर्जन स्थान में वटवृक्ष के मूलभाग के निकट सरोवर के पश्चिम किनारे केतकीवन के बीच और चम्पा के उद्यान के पूर्व विश्वकर्मा जी ने राधा-माधव की क्रीड़ा के लिये पुनः एक रत्न मय मण्डप का निर्माण किया, जो चार वेदिकाओं से घिरा हुआ और अत्यन्त सुन्दर था। रत्नसार रचित सौ तूलिकाएँ उसकी शोभा बढ़ाती थीं। अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित तथा नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित नौ जोड़े कपाटों और नौ मनोहर द्वारों से उस रत्नमण्डप की बड़ी शोभा हो रही थी। उस मण्डप की दीवारों के दोनों बगल में और ऊपर भी श्रेष्ठ रत्नों द्वारा रचित कृत्रिम चित्रमय कलश उसकी श्रीवृद्धि कर रहे थे। उन कलशों की तीन कोटियाँ थीं। उक्त रत्नमण्डप में महामूल्यवान् श्रेष्ठ मणिरत्नों द्वारा निर्मित नौ सोपान शोभा दे रहे थे। उत्तम रत्नों के सारभाग से बने हुए कलशों से मण्डप का शिखर-भाग जगमगा रहा था। पताका, तोरण तथा श्वेत चामर उस भवन की शोभा बढ़ा रहे थे। उसमें सब और अमूल्य रत्नमय दर्पण लगे थे, जिनके कारण सबको अपने सामने की ओर से ही वह मण्डप दीप्तिमान् दिखायी देता था।
वह सौ धनुष ऊपर तक अग्रि-शिखाके समान प्रकाशपुञ्ज फैला रहा था। उसका विस्तार सौ हाथका था। वह रत्नमण्डप गोलाकार बना था। उसके भीतर रत्ननिर्मित शय्याएँ बिछी थीं, जिनसे उस उत्तम भवन के भीतरी भाग को बड़ी शोभा रही थी। उक्त शय्याओं पर अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र बिछे थे। मालाओं के समूह से सुसज्जित होकर वे विचित्र शोभा धारण करते थे। पारिजात के फूलोंकी मालाओं के बने हुए तकिये उनपर यथास्थान रखे गये थे।
चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से वह सारा भवन सुवासित हो रहा था। उसमें मालती और चम्पा के फूलों की मालाएँ रखी थीं। नूतन शृङ्गार के योग्य तथा पारस्परिक प्रेमकी वृद्धि करने वाले कपूर युक्त ताम्बूल के बीड़े उत्तम रत्नमय पात्रोंमें सजाकर रखे गये थे। उस भवन में रत्नों की बनी हुई बहुत-सी चौकियाँ थीं, जिनमें हीरे जड़े थे और मोतियोंकी झालरें लटक रही थीं। रत्नसारजटित कितने ही घट यथास्थान रखे हुए थे। रत्नमय चित्रोंसे चित्रित अनेक रत्नसिंहासन उस मण्डप की शोभा बढ़ाते थे, जिनमें जड़ी हुई चन्द्रकान्त मणियाँ पिघलकर जल की बूँदों से उस भवनको सींच रही थीं। शीतल एवं सुवासित जल तथा भोग्य वस्तुओंसे युक्त उस रमणीय मिलन मन्दिर (रत्नमण्डप) -का निर्माण करके विश्वकर्मा जी फिर नगर में गये।
जिनके लिये जो भवन बने थे, उनपर उनके नाम उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक लिखे। इस कार्य में उनके शिष्य तथा यक्षगण उनकी सहायता करते थे।
मुने! निद्रा के स्वामी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण उस समय निद्रा के वशीभूत थे। उनको नमस्कार करके विश्वकर्माजी अपने घर को चले गये। परमेश्वर श्रीकृष्ण की इच्छा से ही भूतलपर ऐसा आश्चर्यमय नगर निर्मित हुआ।
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)