श्रीकृष्ण की नगरी वृंदावन का निर्माण देवताओं के वास्तुकार विश्वकर्मा जी के द्वारा किया गया था, जिसके निर्माण की कथा का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड में संक्षिप्त रुम में वर्णन मिलता है। वृंदावन के निर्माण के कथा को स्वयं नारायण भगवान् ने देवर्षि नारद जी को कृष्णजन्म से पूर्व ही सुनाई है।
भगवान् नारायण कहते हैं-नारद! रात में वृन्दावन के भीतर सब ब्रजवासी और नन्दराय जी सो गये। निद्रा के स्वामी श्रीकृष्ण भी माता यशोदा के वक्षःस्थल पर प्रगाढ़ निद्रा के वशीभूत हो गये। रमणीय शय्याओं पर सोयी हुई गोपियाँ भी निद्रित हो गयीं। कोई शिशुओं को गोद में लेकर, कोई सखियों के साथ सटकर, कोई छकड़ों पर और कोई रथों पर ही स्थित होकर निद्रा से अचेत हो गयीं।
पूर्ण चन्द्रमा की चाँदनी फैल जाने से जब वृन्दावन स्वर्ग से भी अधिक मनोहर प्रतीत होने लगा, नाना प्रकार के कुसुमों का स्पर्श करके बहने वाली मन्द-मन्द वायु से सारा वन-प्रान्त सुवासित हो उठा तथा समस्त प्राणी निश्चेष्ट होकर सो गये, तब रात्रिकालिक पञ्चम मुहूर्त के बीत जाने पर शिल्पियों के गुरु के भी गुरु भगवान् विश्वकर्मा वहाँ आये। उन्होंने दिव्य एवं महीन वस्त्र पहन रखा था। उनके गले में मनोहर रत्नमाला शोभा दे रही थी। वे अनुपम रत्न निर्मित अलंकारों से अलंकृत थे। उनके कानों में कान्तिमान् मकराकृत कुण्डल झलमला रहे थे। वे ज्ञान और अवस्था में वृद्ध होने पर भी किशोर की भाँति दर्शनीय थे। अत्यन्त सुन्दर, तेजस्वी तथा कामदेव के समान कान्तिमान् थे|
उनके साथ विशिष्ट शिल्पकला में निपुण तीन करोड़ शिल्पी थे। उन सब के हाथों में मणिरत्न, हेमरत्न तथा लोह निर्मित अस्त्र थे। कुबेर-वन के किङ्कर यक्ष समुदाय भी वहाँ आ पहुँचे। वे स्फटिकमणि तथा रत्नमय अलंकारों से विभूषिता थे। किन्हीं किन्हीं के कंधे बहुत बड़े थे। किन्हीं के हाथों में पद्मरागमणि के ढेर थे तो किन्हीं के हाथों में इन्द्रनीलमणि के कुछ यक्षों ने अपने हाथों में स्यमन्तकमणि ले रखी थी और कुछ यक्षों ने चन्द्रकान्तमणि ले रखी थी । अन्य बहुत-से यक्षों के हाथों सूर्यकान्तमणि और प्रभाकरमणि के ढेर प्रकाशित हो रहे थे। किन्हीं हाथों में फरसे से तो किनकि, लोहसार। कोई-कोई गन्थसार तथा मणि लेकर आये थे। किन्हीं के हाथ में चैव थे और कुछ लोग दर्पण, स्वर्णपात्र और स्वर्ण कलश आदि के बोझ लेकर आये थे।
विश्वकर्मा जी ने वह अत्यन्त मनोहर सामग्री देखकर सुन्दर नेत्रों वाले श्रीकृष्ण का ध्यान करके वहाँ नगर-निर्माण का कार्य आरम्भ किया। भारतवर्ष का वह श्रेष्ठ और सुन्दर नगर पाँच योजन विस्तृत था। तीर्थो का सारभूत वह पुण्यक्षेत्र श्रीहरि को अत्यन्त प्रिय है। जो वहाँ मुमुक्षु होकर निवास करते हैं, उन्हें वह परम निर्वाण की प्राप्ति कराने वाला है। गोलोक में पहुँचने के लिये तो वह सोपानरूप है। सबको मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करने वाला है।
वहाँ चार-चार कमरे वाले चार करोड़ भवन बनाये गये थे, जिससे वह नगर अत्यन्त मनोरम प्रतीत होता था । श्रेष्ठ प्रस्तरों से निर्मित वह विशाल नगर किवाड़ों, खम्भों और सोपानों से सुशोभित था। चित्रमयो पुत्तलिकाओं, पुष्पों और कलशों से वहाँ के भवनों के शिखरभाग अत्यन्त प्रकाशमान जान पड़ते थे। पर्वतीय प्रस्तर-खण्डों से निर्मित वेदिकाएँ और प्राङ्गण उस नगर के भवनों की शोभा बढ़ा रहे थे। प्रस्तर खण्डों के परकोटों से सारा नगर घिरा हुआ था। विश्वकर्माजी ने खेल खेल में ही सारे नगर की रचना कर डाली। प्रत्येक गृह में यथायोग्य बड़े-छोटे दो दरवाजे थे। हर्ष और उत्साह से भरे हुए देवशिल्पी ने स्फटिक जैसी मणियों से उस नगर के भवनोंका निर्माण किया था। गन्धसार-निर्मित सोपानों, शंकु-रचित खम्भों, लोहसार की बनी हुई किवाड़ों, चाँदी के समुज्ज्वल कलशों तथा वज्रसार निर्मित प्राकारों से उस नगर की अपूर्व शोभा हो रही थी। उसमें गोपों के लिये यथास्थान और यथायोग्य निवास स्थान बनाकर विश्वकर्मा जी ने वृषभान गोप के लिये पुनः रमणीय भवनका निर्माण आरम्भ किया। उसके चारो ओर परकोटा और खाइयाँ बनी थीं। चारों दिशाओं में चार दरवाजे थे। चार-चार कमरों से युक्त बीस भव्य भवन बनाये गये थे। उस सम्पूर्ण भवन का निर्माण महामूल्य मणियों से किया गया था। रत्नसार रचित सुरम्य तूलिकाओं, सुवर्णाकार मणियोंद्वारा निर्मित अत्यन्त सुन्दर सोपानों, लोहसार की बनी हुई किवाड़ों तथा कृत्रिम चित्रों से वृषभानु भवन की बड़ी शोभा हो रही थी। वहाँ का प्रत्येक सुरम्य मन्दिर सोने के कलशों से देदीप्यमान था। उस आश्रम के एक अत्यन्त मनोहर निर्जन प्रदेशमें, जो मनोहर चम्पा - वृक्षों के उद्यान के भीतर था। पतिसहित कलावती के उपयोग के लिये विश्वकर्मा जी ने कौतूहलवश एक ऐसी अट्टालिका बनायी थी, जिसका निर्माण विशिष्ट श्रेणी की श्रेष्ठ मणियों द्वारा हुआ था। उसमें इन्द्रनीलमणि के बने हुए नौ सोपान थे। गन्धसार निर्मित खम्भों और कपाटों से वह अत्यन्त ऊँचा मनोरम भवन सब ओर से विलक्षण था।
वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर) वास्तुआर्ट